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लक्ष्मेश्वर | 101 कायोत्सर्ग मुद्रा में लघु मूर्तियाँ सुन्दर ढंग से उत्कीर्ण की गई हैं। विशेष रूप से शिखर पर बहुत ही सूक्ष्म कारीगरी है। यहीं अंकित हैं-देवियाँ, नर्तकियाँ, यक्षियाँ, सिंह और मिथुन आदि । दाहिनी दीवाल पर भी बायीं ओर की दीवाल जैसा उत्कीर्णन है। साथ ही उसमें पाषाण का जालीदार झरोखा, व्याल तथा कायोत्सर्ग तीर्थंकर मूर्तियाँ भी हैं। नीचे के भाग की दीवाल पर कोई उत्कीर्णन नहीं है । शायद यहाँ मरम्मत की गई है। प्रवेश से दायीं ओर की, उससे आगे की दीवाल पर भी बाँयी ओर की दीवाल की भाँति उत्कीर्णन है। सामने से मन्दिर देखने पर जो निराशा होती है उसकी पूर्ति इन अंकनों तथा सहस्रकूट के दर्शनों से भालीभाँति हो जाती है। अनन्तनाथ बसदि
यह स्थानीय बस स्टैण्ड के निकट एक बड़े अहाते में है। कहीं-कहीं, शायद भूल से, इसे आदिनाथ बसदि कहा गया है। यह भी 10वीं सदी का मन्दिर जान पड़ता है। बाहर से देखने पर यह मन्दिर किलेनुमा जान पड़ता है। इसके बाहर एक नागफलक है । मन्दिर में एक गर्भगृह है। उसके सामने वेदी पर अनेक मूर्तियाँ विराजमान हैं। उससे आगे का मण्डप काफी बड़ा है। उसमें लगभग 30 स्तम्भ हैं और एक देवकुलिका । आकार में ये तीनों एक-दूसरे से छोटे होते चले गए हैं और इस प्रकार बसदि को भव्यता प्रदान करते हैं। देवकुलिका के प्रवेशद्वार पर भी पद्मासन में तीर्थंकर विराजमान हैं । इसमें तीन फुट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में सात फणों से युक्त पार्श्वनाथ की मूर्ति है । इसकी चौखट पर भी सुन्दर नक्काशी है। बसदि का प्रवेशद्वार पंच-शाखा प्रकार का है। उस पर मनोहारी उत्कीर्णन और सिरदल पर पद्मासन में तीर्थंकर प्रदर्शित हैं। अच्छी नक्काशी के मामले में यह बसदि निराश नहीं करती। उसका सुन्दर प्रदर्शन इसकी पिछली दीवाल पर है। उसमें त्रिकोणात्मक शिखरयुक्त आले हैं। उनके भी आस-पास हाथियों का अंकन है । बसदि का शिखर कटनीदार है।
लक्ष्मेश्वर कस्बे की इस अनन्तनाथ बसदि में मूलनायक अनन्तनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में काले पाषाण की 5 या 6 फुट ऊँची सुन्दर मूर्ति है। उस पर एक ही छत्र है। भामण्डल पीतल का है। दोनों ओर चँवरधारी हैं तथा इन तीर्थंकर के यक्ष किन्नर और यक्षिणी अनन्तमती घुटनों तक बैठे हुए प्रदर्शित हैं । मूर्ति दसवीं शताब्दी की है । दसवीं सदी की ही एक पार्श्वनाथ मूर्ति और एक खण्डित चौबीसी भी यहाँ है । ग्यारहवीं सदी की 6 फुट ऊँची एक चौबीसी के मूलनायक आदिनाथ कायोत्सर्ग में हैं । उनके एक ओर पार्श्वनाथ तथा गोमुख यक्ष तथा दूसरी ओर सुपार्श्वनाथ एवं पद्मावती उत्कीर्ण हैं। शेष तीर्थंकर गोलघेरों में हैं, मकर-तोरण की योजना है और इस पर कन्नड़ में एक लेख है। इसी शताब्दी की एक पंचतीथिका (पाँच तीर्थंकरों की मतियाँ) भी यहाँ देखी जा सकती है। एक-दो चौबीसियाँ और भी हैं। उनमें 14वीं सदी की कांस्य की चौबीसी के पादासन पर नौ ग्रह उत्कीर्ण हैं । ग्यारहवीं सदी की पद्मावती और ब्रह्मयक्ष
मूतियाँ भी हैं जो कि अतिशययुक्त बताई जाती हैं। दसवीं सदी की एक सरस्वती मूर्ति के बाएँ हाथ में पुस्तक है।
लक्ष्मेश्वर से बंकापुर होते हुए सिरसी के लिए प्रस्थान करना चाहिए। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, लक्ष्मेश्वर में धर्मशाला के रूप में ठहरने की व्यवस्था नहीं है।