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लक्ष्मेश्वर / 99
इस स्थान की 'पेर्माडि बसदि' के दर्शन चालुक्य भुवनैकमल्ल के सामन्त राजा जयकीर्ति 1074 ई. में किये थे । यह भी ज्ञात होता है कि 1113 ई. में 'गोग्गय्या बसदि' में इन्द्रकीर्ति पण्डितदेव रहते थे । 1295 ई. में यहाँ की शान्तिनाथ बसदि के लिए सोमय्या ने दान दिया था । चोलराज सोमेश्वर प्रथम ने इस नगर पर आक्रमण किया था और यहाँ के जैन मन्दिरों को नष्ट कर दिया था ।
स्थानीय अनुश्रुति के अनुसार, आदय्या नामक वीरशैव ने सोमनाथ से सोमेश्वर की मूर्ति एक जैन बसदि में स्थापित की और उस बसदि को पाषाण निर्मित करा दिया। यह घटना 11वीं12वीं सदी की बताई जाती है । आजकल यह सोमेश्वर मन्दिर कहलाता है । इस घटना का उल्लेख 'सोमेश्वरचरिते' में भी है ।
महाकवि पम्प की काव्य- भूमि
एक हज़ार से अधिक वर्ष की प्राचीन कन्नड़ के आदिकवि हैं महाकवि पम्प । उनके दो महाकाव्य प्रसिद्ध हैं 'आदिपुराण' (जैन - रचना) और 'विक्रमार्जुन- विजय' । कवि पम्प ने आदिपुराण की रचना लक्ष्मेश्वर के 'शंख जिनालय' या 'सहस्रकूट जिनालय' में की थी।
महाकवि पम्प जन्म से ब्राह्मण थे किन्तु उन्होंने जैनधर्म स्वीकार कर लिया था । 'मैसूर' (राष्ट्रीय पुस्तक न्यास - NBT ) के लेखक न. स. रामचन्द्रैया के शब्दों में, “वह एक ही साथ 'कवि' और 'कलि' (वीर) दोनों थे । पम्प के सभी वर्णन उनके प्रत्यक्ष अनुभव के आधार परं हैं - शान्ति तथा युद्ध, प्रासाद और कुटीर, गाँव और नगर । उनका व्यक्तित्व सम्पूर्ण था । उन्हें इस बात पर गर्व था कि उनके अन्दर काव्य-धर्म और धर्म दोनों के लिए ही समान सम्मान है । वह इहलोक और परलोक दोनों की ही रक्षा कर सकते थे। तभी तो उन्होंने दो महाकाव्य लिखे - जैन धर्म का वर्णन करने के उद्देश्य से 'आदिपुराण' और लौकिक बातों का वर्णन करने के लिए 'विक्रमार्जुन - विजय' । इस प्रकार उन्होंने अपने दो महाकाव्यों द्वारा चम्पू- काव्य की अर्थात् मिश्रित गद्य-पद्य की प्रथा चलायी ।" वे कन्नड भाषा के महान् प्रथम कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं । उनका इस भाषा - साहित्य के इतिहास में बड़ा महत्त्व है । उनके द्वारा प्रवर्तित चम्पू- काव्य शैली दो सौ वर्षों तक कन्नड़ साहित्य में बड़ी लोकप्रिय रही।
शंख जिनालय
लक्ष्मेश्वर का 'शंख जिनालय' (देखें चित्र क्र. 35 ) किसी समय एक विशाल जैन मन्दिर रहा होगा । उसका अहाता निश्चय ही बड़ा है । यह भी सम्भव है कि इसके साथ छोटे मन्दिर भी इसी अहाते में रहे हों। जैसे ही हम मन्दिर के समीप पहुँचते हैं, हमें सड़क के किनारे ही एक चबूतरे पर तीन छत्र और कीर्तिमुख स्थापित दिखाई पड़ते हैं । इनके पास एक खम्भा गड़ा है । ऐसा जान पड़ता है कि यह चबूतरा किसी मन्दिर की चौकी रहा होगा। यहीं प्रवेश - सीढ़ियों का जंगला है । यह भी सम्भव है कि मन्दिर का कुछ भाग अब मकानों में परिवर्तित हो गया हो ।
वर्तमान में शंख जिनालय एक विशाल मन्दिर का शेष भाग जान पड़ता है । यहाँ अब भी पूजन-अर्चन होता हैं । बाहर खण्डित मूर्तियाँ और कड़ियाँ ( Beams ) पड़ी हैं । मन्दिर के