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98 | भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
लक्ष्मेश्वर
यहाँ के बहुत प्राचीन 'शंख मन्दिर' (जैन मन्दिर) में सहस्रकूट (एक हजार जिन-मूर्तियों का एक साथ अंकन) एक ऐसी कलाकृति है जो बहुत ही कम देखने को मिलती है। अवस्थिति एवं मार्ग
लक्ष्मेश्वर (Lakshmeshwar) सड़क-मार्ग द्वारा हुबली और गदग से जुड़ा हुआ है। कुण्डगोल (38 कि. मी.) होते हुए हुबली से लक्ष्मेश्वर 78 कि. मी. है। खेद है कि कर्नाटक बसरूट और पर्यटन नक्शे में यह सड़क नहीं है।
निकटतम रेलवे स्टेशन गुडगेरी है जो कि पूना-हुबली-बंगलोर मीटरगेज लाइन पर दक्षिण रेलवे के अन्तर्गत आता है। वहाँ से लक्ष्मेश्वर लगभग 15 किलोमीटर है।
वर्तमान में लक्ष्मेश्वर एक बड़ा गाँव है जो कि धारवाड़ जिले के सिरहद्दी तालुक के अन्तर्गत आता है। यहाँ पहले 101 जैन मन्दिर थे, अब केवल दो रह गए हैं-शंख बसदि और नाथ बसदि। जैन परिवारों की संख्या भी पन्द्रह है। न कोई धर्मशाला है और न कोई पाठशाला। अतः यहाँ के मन्दिर देखकर आगे बढ़ना चाहिए। बस-स्टैण्ड के आस-पास कुछ जैन परिवार रहते हैं। एक प्राचीन नगर
लक्ष्मेश्वर एक प्राचीन नगर है। यहाँ 53 शिलालेख हैं। यहाँ बोली जाने वाली कन्नड़ शुद्ध मानी जाती है। शिलालेखों में इस नगर के अनेक नाम आते हैं। जैसे-पुलिगेरे, हलिगेर, पुरिगेरे, पोरिगेरे और पुलिकर नगर । पुलिगेर का अर्थ होता है-चीते के तालाब को नगर । ये शिलालेख 7वीं से 16वीं शताब्दी तक के हैं। _ 'शंख बसदि' सातवीं सदी की या उससे पहले की निर्मित जान पड़ती है। यहाँ 700 ई. के एक शिलालेख में उल्लेख है कि पूज्यपाद अकलंक की परम्परा के उदयदेव पण्डित चालुक्य शासक विजयादित्य द्वितीय (696-733 ई.) के राजगुरु थे। इस राजा ने उपर्युक्त गुरु को इस मन्दिर के लिए दान आदि दिया था। 734 ई. के एक अन्य शिलालेख में उल्लेख है कि राजमान्य विकीर्णक ने 'शंख जिनालय' के जीर्णोद्धार एवं मण्डन (सजावट) के लिए भूमिदान दिया था। इससे स्पष्ट है कि 734 ई. में यह मन्दिर मरम्मत के लायक हो चुका था। शंख मन्दिर में पत्थर की लम्बी शिला पर 968 ई. के एक लेख में गंग या कोंगु वंश की वंशावली दी गई है। उसमें उल्लेख है कि मारसिंह देव कोंगणिवर्मा ने जिन्हें गंगकंदर्प भी कहते थे, जयदेव नामक पुरोहित को दान दिया था। इस लेख में इस मन्दिर को 'गंगकंदर्प भूपाल जिनेन्द्र मन्दिर' कहा गया है। संभवतः काफ़ी मरम्मत या जीर्णोद्धार कार्य के कारण यह नाम दे दिया गया है।
एक शिलालेख से यह सूचना प्राप्त होती है कि चालुक्य शासक विजयादित्य (696733 ई.) की छोटी बहिन कुंकुम महादेवी ने यहाँ 'आने सेज्जे' बसदि का निर्माण कराया था और वहीं सल्लेखना भी धारण की थी।