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हम्पी / 79
उनके नाम का उल्लेख अवश्य किया गया है । होसपेट से हम्पी ( मन्दिर क्षेत्र) तक पक्की सड़क है । उस पर बसें चलती हैं। रास्ते में अनन्तशयनगुडी नामक गाँव और कड्डीरामपुर आते हैं। जहाँ कुछ मुस्लिम कब्रें हैं । होसपेट आने वाली सड़क पर 7 कि. मी. के बाद, एक सड़क मुड़ती है जो कि मन्दिर क्षेत्र (हम्पी) की ओर जाती है। सीधी सड़क कमलापुर चली जाती है ।
मन्दिर क्षेत्र की बस पर्यटक को हम्पी बाज़ार में उतार देती है । यह बाज़ार 35 गज चौड़ा और 800 गज लम्बा है। किसी समय यहाँ व्यापार की धूम थी - हीरे-जवाहरात और सभी वस्तुओं की । यहाँ व्यापारियों, अधिकारियों के भवन थे । उनके अवशेष पाषाण के स्तम्भों, भग्न मकानों में अब भी हैं जिनमें कुछ लोग बस गए हैं। बाज़ार अब भी यहाँ है । उसमें पूजा सामग्री, पुस्तकें, ठण्डे पेय आदि मिलते हैं । यहीं कर्नाटक सरकार का एक छोटा-सा पर्यटन कार्यालय भी है ।
1. विरूपाक्ष मन्दिर - बाज़ार से पश्चिम दिशा में यहाँ का सर्वाधिक प्रसिद्ध विरूपाक्ष या पम्पापति मन्दिर है जिसमें अब भी पूजन होती है । यह मन्दिर तुंगभद्रा नदी के किनारे है । इसका गोपुर ( प्रवेशद्वार ) नौमंजिला है और 52 मीटर ऊँचा है । उसमें ऊपर तक जाने के लिए सीढ़ियाँ भी हैं । एक मत यह है कि यह गोपुर बिस्तप्पा ने चौथी शताब्दी में बनवाया था और बिस्तप्पा गोपुर कहलाता था। दूसरा मत यह है कि इसे देवराज द्वितीय के एक अधिकारी टिप्पा (1422-46) ने बनवाया था और उसकी मरम्मत कृष्णदेवराय ने 1510 ई. में कराई थी । केवल 60 वर्षों में ही मरम्मत की आवश्यकता पड़ गई यह कुछ अटपटा लगता है । एक हजार वर्ष के बाद मरम्मत की बात ठीक जँचती है। यह मन्दिर और उसका अहाता बड़ा विशाल है । उसमें तीर्थ यात्रियों के ठहरने की भी व्यवस्था है । इसकी एक विशेषता यह है कि तुंगभद्रा नदी की एक संकीर्ण धारा मन्दिर की छत पर से होती हुई रसोईघर में नीचे गिरती है और फिर बाहर बह जाती है । इसमें छोटे गोपुर भी हैं और अनेक छोटे-छोटे मन्दिर भी हैं । इसलिए यह एक प्रकार का मन्दिर - समूह ही है। तीन मंजिल का एक छोटा गोपुर कृष्णदेवराय ने 1510 ई. में बनवाया था । मुख्य मन्दिर पूर्वाभिमुखी है । इसके चित्र सुन्दर हैं । अर्जुन, दशावतार, दिक्पाल, शिव आदि का अंकन अच्छा बन पड़ा है। गर्भगृह में एक सँकरा, प्रदक्षिणा - प्राकार है। इसका शिखर गुम्बज - जैसा है । उसमें विरूपाक्ष लिंग (शिवलिंग) स्थापित है । मन्दिर के अहाते में पातालेश्वर, नवदुर्गा आदि अनेक छोटे मन्दिर हैं । दक्षिणपश्चिम में सरस्वती की काले पाषाण वाली प्रतिमा से युक्त एक मन्दिर है । दो भुजाओं वाली आसीन सरस्वती वीणा बजा रही है और उसके मस्तक के पीछे सुन्दर प्रभावली है । यहाँ पार्वती और भुवनेश्वरी के दो मन्दिरों को पुरातत्त्वविद् बारहवीं सदी का मानते हैं अर्थात् विजयनगर साम्राज्य की स्थापना से पहले के । लाँगहर्स्ट ने यह मत व्यक्त किया है कि इस मन्दिर-समूह के मन्दिर विभिन्न कालावधियों में निर्मित हुए हैं और यह सम्भावना व्यक्त की है कि ( 1336 ई. में विजयनगर की नींव पड़ने से पहले ही इस स्थल पर जैनों का कोई मन्दिर रहा हो । ) "It is possible that the Jains had a temple on this site long before the founding of Vijayanagar in 1336" (पृष्ठ 26 ) ।
2. हेमकूट - विरूपाक्ष मन्दिर के दक्षिण की पहाड़ी हेमकूट के नाम से प्रसिद्ध है । इस पर स्थित मन्दिर 'जैन - मन्दिर समूह' कहलाते हैं (चित्र क्र. 24 ) । इन्हें देखने के लिए