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16 | भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
उपर्युक्त राजा के बाद, 1404 से 1420 तक दो राजाओं-बुक्काराय द्वितीय और देवप्रथम ने राज्य किया । वे बहमनी शासकों से युद्ध में ही लगे रहे। देवराय प्रथम की रानी भीमादेवी जैन महिला थी । उसने 1410 ई. में श्रवणबेलगोल की मंगायि बसदि में शान्तिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी और दान दिया था । राजा स्वयं भी जैन मुनि धर्मभूषण का भक्त था। सन् 1420 ई. में इटालियन यात्री निकोलो कोण्टी विजयनगर आया था । उसने इस नगर का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है ।
देवराय द्वितीय (1420-46 ई.) एक महत्त्वाकांक्षी, महान् शासक था । बहमनियों से युद्ध करते रहने के अतिरिक्त, उसने उड़ीसा पर भी विजय प्राप्त की, पूरे दक्षिण भारत पर शासन किया और लंका तथा बर्मा से भी कर वसूल किया। सन् 1424 ई. में उसने वरांग की नेमिनाथ बसदि को वरांग ग्राम दान में दिया था। सन् 1426 ई. में उसने विजयनगर के ही पान-सुपारी बाज़ार में पार्श्वनाथ का एक मन्दिर बनवाया था जो अब भी ध्वस्त अवस्था में मौजूद है। कार में बाहुबली की प्रतिष्ठा में वह स्वयं 1432 में सम्मिलित हुआ था । अपने राज्य के प्रथम वर्ष (1420 ) में ही उसने श्रवणबेलगोल के गोमटेश्वर की पूजा के लिए एक गाँव दान में दिया था । इस नरेश की 1446 में मृत्यु का उल्लेख भी श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में है । सन् 1440 में विजयनगर आये फारस के राजदूत अब्दुर रज़ाक ने भी विजयनगर
बहुत प्रशंसा की है ।
देवराय के बाद, लगभग 60 वर्षों तक निर्बल और अल्पकालीन शासकों का राज्य रहा । संगम राजाओं के एक मन्त्री नरसिंह सालुव ने शासन हथिया लिया और 1486 से 92 तक राज्य किया और दक्षिण को फिर विजित किया । इसी काल में 1482 में बहमनी शासक का राज्य पाँच टुकड़ों में बँट गया। इनमें से बीजापुर का सुलतान विजयनगर साम्राज्य का सबसे बड़ा शत्रु सिद्ध हुआ । सालुव वंश के शासक इम्मडि नरसिंह को भी अरसनायक नाम के एक सामन्त ने मार डाला और स्वयं शासक बन गया । यह वंश तुलुव कहलाता था । उसके बाद वीर नरसिंह भुजबल ( 1506-9 ) शासक हुआ । उसका उत्तराधिकारी कृष्णदेवराय (1509-30 ई.) बना । विजयनगर साम्राज्य के इतिहास में उसका शासनकाल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। उसके शासनकाल को स्वर्णयुग कहा गया है। उसे अपने सैनिक अभियानों में सफलता ही सफलता मिली। उसने पूरे दक्षिण भारत पर अधिकार कर लिया, बहमनी सुलतान को धूल चटाई, और उड़ीसा पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित किया । 1520 ई. में उसने रायचूर के युद्ध में बीजापुर के सुलतान को हराकर बीजापुर पर कब्जा कर लिया किन्तु प्रजा पर कोई अत्याचार नहीं किया, बल्कि आत्म-समर्पण करने वाले सैनिकों को क्षमा कर दिया । उसने पुर्तगालियों से भी राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किए । साहित्य और कला का भी वह प्रेमी था । उसने संस्कृत और तेलुगु में रचना की । विट्ठल मन्दिर, हजारा राममन्दिर आदि हम्पी के मन्दिरों, गोपुरों आदि का उसने संवर्धन किया। उसके समय में सिंचाई के लिए नहरों का जाल बिछा | पुर्तगाली यात्री डोमिंगो पाइस और नूनिज़ ने इस नगरी (विजयनगर) और राजा के ऐश्वर्य, त्योहारों, सेना, लोगों, प्रथाओं का बड़ा रोचक एवं विस्तृत वर्णन किया है जो 'विजयनगर एम्पायर' नामक नेशनल बुक ट्रस्ट की पुस्तक में छपा है ।
कृष्णदेवराय सभी धर्मों का आदर करता था। जैन धर्म का भी वह आदर करता था ।