________________
आगामी समय में प्रवेश कर सकने की सामर्थ्य उच्चतर मूल्य-संसार रचती है और समाजदर्शन इसके प्रति अधिक चिंताकुल रहता है । गोल्डमान ने समाजवादी अथवा मानववादी संस्कृति पर बल दिया है (पॉवर एंड ह्यूमनिज्म, पृ. 187 ) ।
विचार और रचना के संदर्भ में समाजदर्शन का प्रयोग करते हुए, हमारा आशय यही है कि क्या मानव मूल्यों का कोई संसार, विचार-दर्शन अथवा संवेदन - स्तर पर रचने का प्रयत्न किया गया है ? यदि नहीं तो निश्चय ही यह उसकी एक दुर्बलता है । प्राचीन रचनाओं में देव-दानव, पुण्य-पाप, सत्-असत्, मंगल- अमंगल आदि के प्रश्न उठाए गए और सत्य की प्रतिष्ठा के लिए शुभ को विजयी घोषित किया गया, काव्य - न्याय के रूप में ही सही । आशय है समाज में मूल्य-मर्यादाओं की स्थापना का : जानि गरल जे संग्रह करहीं, कहहु उमा ते काहे न मरहीं । पर एक प्रासंगिक प्रश्न यह है कि जटिलतर होते जाते समय में यह प्रवृत्ति - विभाजन कितना संगत है ? कुँवरनारायण ने अपनी 'आशय' कविता में रचना की आंतरिक व्यथा का उल्लेख किया है : हाय पर मेरे कलपते प्राण, तुमको मिला कैसी चेतना का विषम जीवन-मान/ जिसकी इंद्रियों से परे, जाग्रत हैं अनेकों भूख (चक्रव्यूह, पृ. 34 ) । रचना और मानवमूल्य स्वतंत्र चर्चा का विषय है और विद्वानों ने इस ओर विशेष ध्यान दिया है। उनका विचार है कि दर्शन, विचार इस अर्थ में एक प्रतिसंस्कृति (काउंटर कल्चर) भी हैं कि वे समय के प्रति अपना असंतोष व्यक्त करते हैं और विकल्प के संकेत भी उनमें देखे जा सकते हैं । थियोडोर रोज़ाक ने अपनी पुस्तक का नामकरण ही किया है : 'द मेकिंग ऑफ़ ए काउंटर कल्चर ।'
रचना और विचार के क्षेत्र में समाजशास्त्र के साथ समाजदर्शन का उपयोग अधिक सार्थक प्रतीत होता है । सकारात्मक विचार जीवन की भूमिका में कारगर हस्तक्षेप करते हैं, इतिहास की दिशा बदलते हैं। क्रांति के मूल में समाजदर्शन के शब्द होते हैं, इसे सबने स्वीकार किया है। रचना सामाजिक परिवर्तन में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करती है, अथवा नहीं, इसे लेकर वाद-विवाद है । पर परिवेश बनाने में उसकी भूमिका होती है, यह निर्विवाद है । यह रचना का मूल्य-संसार है जिसके कुछ उपादान, इतिहास के परिवर्तित समय-चक्र में भी बने रहते हैं । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने करुणा को सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य के रूप में प्रतिपादित किया : 'सामाजिक जीवन की स्थिति और पुष्टि के लिए करुणा का प्रसार आवश्यक है । समाजशास्त्र के पश्चिमी ग्रंथकार कहा करें कि समाज में एक-दूसरे की सहायता अपनी-अपनी रक्षा के विचार से की जाती है (सामाजिक अनुबंध सिद्धांत); यदि ध्यान से देखा जाय तो कर्मक्षेत्र में परस्पर सहायता की सच्ची उत्तेजना देने वाली किसी न किसी रूप में करुणा ही दिखाई देगी' (चिंतामणि, भाग -एक, पृ. 51 ) । जटिल होते जाते समय में यह और भी आवश्यक है कि रचना का संसार स्वयं को मूल्य - चिंता से गहरे रूप में संबद्ध करे । यहाँ वह - एक ऐसी संस्कृति है, जो जटिलताओं के बीच सही मार्ग तलाशती है और रचना
28 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन