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मध्यकालीन इतिहास और संस्कृति की दृष्टि से ग्राम-नगर का द्वंद्व एक विचारणीय विषय हो सकता है, यद्यपि विद्वानों ने इस ओर अधिक ध्यान नहीं दिया। पर संस्कृति और रचनाशीलता को ध्यान में रखते हुए यह एक उपयोगी विषय है। मध्यकालीन भारत में जैसे दो समाज हैं-ग्राम और नगर के तथा इनकी स्थितियाँ भिन्न हैं, एक-दूसरे से लगभग अछूते। ग्रामों को अपने केंद्रीय शासक की ख़बर तक नहीं है : कोउ नृप होउ हमहि का हानी, चेरि छाँड़ि अबहोब कि रानी (तुलसी : अयोध्याकांड)। अपने अभावों से जूझते ग्राम-समाज के सामान्यजन, दूसरी ओर सामंती विलास के प्रतिनिधि नगर-समाज के अभिजन। अयोध्या (तुलसी), मथुरा (सूर) नगर-सभ्यता का प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि वनखंडी और ब्रजमंडल गोकुल ग्राम-समाज का। मध्यकाल में अभिजन समाज नगरों में उच्चवर्गीय संस्कृति का प्रतीक होने का दावा करता है, पर जहाँ तक रचनाशीलता का प्रश्न है, उसकी प्रमुख प्रेरणा ग्राम-समाज ही है जिसकी चर्चा भक्तिकाव्य के विवेचन में होगी। यद्यपि यह उल्लेख करना आवश्यक है कि शाही दरबार और सामंतों की निकटता से नगरग्राम समाजों में संवाद की प्रक्रिया भी आरंभ हुई (नूरुल हसन : लैंड कंट्रोल एंड सोशल स्ट्रक्चर लेख, पृ. 7)। पर यह कुछ वर्गों तक ही सीमित थी और वर्गों/वर्गों में अलगाव था, इसे स्वीकार करना होगा।
मध्यकालीन सामंती समय के उन पक्षों पर भी विचार होना चाहिए जिन्होंने मध्यकालीन समाज-संस्कृति को रूपायित करने में अपनी भूमिका निभाई। आरंभिक टकराहट के बाद, सांस्कृतिक संवाद की जो प्रक्रिया आरंभ हुई, वह सर्वाधिक विचारणीय है। राजनीतिक पक्ष की दृष्टि से सामंतवाद की अपनी दुर्बलताएँ और उसके अपने अंतर्विरोध होते हैं। तराइन युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की पराजय इसका प्रमाण है। विभिन्न शासकों में विभाजित भारत, बिखरे सामंतवाद का प्रतीक रहा है और इसने बार-बार आक्रमण झेले हैं। उत्तर से लेकर दक्षिण तक के सामंती राज्य एकजुट नहीं हो सके, आपस में टकराते रहे : गुर्जर, प्रतिहार, अहरवार, चंदेल, चालुक्य, राष्ट्रकूट, यादव, होयसल, पल्लव, चोल आदि। बिखरे हुए सामंती समाज में भी कला-संस्कृति को पोषण मिला, यद्यपि उसकी क्षेत्रीय सीमाएँ कही जा सकती हैं। स्थापत्य, वास्तुकला, साहित्य में उनका योगदान है क्योंकि वे कलाओं के आश्रयदाता थे। इतिहासकारों ने विजयनगर राज्य (14 वीं-16 वीं शती) की सांस्कृतिक उपलब्धियों का विशेष उल्लेख किया है (आर. सी. मजूमदार (सं.) : द देलही सल्तनत, पृ. 320)।
सल्तनत काल और मुगलकाल में सूबों के सूबेदार अपने-अपने स्थानों पर क्षेत्रीय कला-संस्कृति के पोषक बने। इससे देशी भाषाओं को नई सक्रियता प्राप्त हुई, जिसे रचनाशीलता में देखा जा सकता है। योरप में लैटिन के स्थान पर देशी भाषाओं का उदय एक महत्त्वपूर्ण घटना है। भारत में संस्कृत, अरबी, फारसी राजभाषाओं के रूप में समादृत रही हैं और दरबार में तथा विद्वत् समाज में इन्हें ही स्वीकृति मिली।
36 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन