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दिमाग के दुरुस्त; भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वन्दनीय' (कबीर, पृ. 167)। इनमें संयोजन की क्षमता उनके प्रखर व्यक्तित्व में थी, जिसे उन्होंने प्रतिबद्ध काव्य से संभव किया।
___ कबीर ने मध्यकालीन भारतीय समाज को चुनौती के रूप में देखा और उसका समाधान अपने ढंग से पाना चाहा। विरोधी प्रतीत होने वाली दिशाएँ एक ही उच्चतर गंतव्य तक पहुँचती हैं और इसे कबीर के व्यक्तित्व की समाहार-सामर्थ्य के रूप में देखना होगा। समय के अंतर्विरोध हो सकते हैं, पर उनमें उलझाव के अवसर नहीं हैं। आश्चर्य होता है कि एक आक्रोशी व्यंग्यकार दो ट्रक भाषा में समाज की विसंगतियों पर आक्रमण करता है, वही ज्ञान को सर्वोपरि स्थान देता है, साथ ही प्रेम-भक्ति में पूरे राग-भाव से उतरता है। ऐसे कई दिशाओं वाले संश्लिष्ट व्यक्तित्व के समाजदर्शन की पहचान का कार्य सरल नहीं होता। कबीर के प्रेम में भी साहस की अपेक्षा है : प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाट बिकाय, राजा-परजा जिस रुचै, सिर दे सो लै जाइ। उनके लिए प्रेम का सर्वोच्च राग भाव, भक्ति में परिणत होता है और इस बिंदु पर पहुँचकर सब अनिर्वचनीय हो जाता है : हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या, रहें आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या। एक प्रसिद्ध पद में कबीर रूपक के माध्यम से मानव-जीवन के मूल्यपरक गंतव्य का चित्रण करते हैं, जिसमें संत-कवि का गहरा आत्मविश्वास भी सम्मिलित है :
झीनी झीनी बीनी चदरिया काहे का ताना काहे की भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया इंगला-पिंगला ताना-भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया साईं को सियत मास दस लागे, ठोक-ठोक के बीनी चदरिया सो चादर सुर-नर-मुनि ओढ़िन, ओढ़ि के मैली कीनी चदरिया
दास कबीर जतन से ओढ़िन, ज्यौं के त्यौं धर दीनी चदरिया। इस प्रकार के पदों में कबीर का व्यक्तित्व संयोजित हुआ है, जहाँ वे जीवन के उच्चतम आशय का संकेत करते हैं, सहज भाषा में। सहजता-सरलता में अंतर होता है और कबीर इस अर्थ में सरल कवि नहीं हैं कि अर्थ ऊपर-ऊपर तैर रहा हो। वे गहन आशय के कवि हैं, अर्थगर्भी और प्रभावी। व्यंग्य जहाँ उनके निर्भय साहस का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहीं राग-रागिनियों में निबद्ध उनके पद प्रगाढ़ भक्तिभाव का, जहाँ प्रेम प्रधान है। उनके लिए मायाजन्य संसार मायका अथवा नैहर है, जहाँ दो-चार दिन खेल लेना है, फिर तो स्थिति यह है कि 'ले डोलिया जाइ बन में उतारिन, कोइ नहीं संगी हमार।' जिस उच्चतम धरातल पर पहुँचना है, वह : 'जहँवा से आयी अमर वह देसवा, पानी न पौन न धरती अकसवा, चाँद न सूर न रैन दिवसवा। इस आध्यात्मिक लोक की प्राप्ति की आकांक्षा मनुष्यता को क्षुद्रताओं
106 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन