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अन्याय अत्याचार पर टिका है। तुलसी अपने समय की विभीषिका का संकेत करके रह जाते तो उनका सांस्कृतिक व्यक्तित्व अधूरा रह जाता। इसे लेकर बहस हो सकती है कि क्या कविता का प्रयोजन समाधान तलाशना भी है ? पर तुलसी के संदर्भ में यह विचारणीय कि वे मात्र कवि नहीं हैं, सामाजिक चेतना से संपन्न प्रतिभा-पुरुष हैं। उन्होंने अपने जीवनकाल में ही रामलीला, रामकथा-गायन आदि के माध्यम से
अपनी कविता को वाचिक परंपरा से जोड़ लिया था। रामचरितमानस का विन्यास प्रमाणित करता है कि वह श्रव्यकाव्य से आगे बढ़कर दृश्यकाव्य है, इस अर्थ में कि तुलसी दृश्य-विधान रचते हैं और संबोधित करते चलते हैं। यह सब होता है-राम को काव्य के केंद्र में रखकर और विनयपत्रिका उन्हीं के प्रति निवेदन-भाव है। तुलसी आश्वस्त हैं कि कर्मवान राम उद्धार करेंगे, उन्हीं से सबकी मुक्ति संभव है। लगता है जैसे कवि के माध्यम से एक वृहत्तर समाज जो दीन-दुखी है, राम से प्रार्थना कर रहा है। विनय-पत्रिका के एक पद में तुलसी राम को कल्पतरु कहकर संबोधित करते हैं : कलि नाम कामतरु राम को, दलनिहार दारिद दुकाल दुख, दोष घोर घन घाम को (पद 156)। उन्हें वे 'सुसाहिब' कहते हैं-सर्वोत्तम स्वामी। राम के समान है ही कौन : दीन को दयालु दानि, दूसरो न कोऊ (पद 78); केवल राम का आश्रय है (263); राम माता-पिता, सुजन-सनेही, गुरु-साहिब, सखा-सुहृद सब कुछ हैं (254)। जैसे सारे संबंध राम से परिभाषित होते हैं : वे समरथ स्वामी हैं (253), छोटे की छोटाई दूर करते हैं (183), गरीब पर अधिक कृपालु (165), अति कोमल करुनानिधान बिनु कारन पर उपकारी (166) आदि।
राम के लिए तुलसी ने जिन विरुदों का प्रयोग किया है, उनसे काव्य-नायक का मानवीय पक्ष उजागर होता है। कुछ अतिलौकिक प्रसंगों को छोड़ दें, जिनमें चमत्कारी अंश भी हैं, पर राम मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में आचरित होकर सर्वप्रिय बनते हैं। इस दृष्टि से रामचरितमानस और विनयपत्रिका में संगति है कि भाव कर्म से प्रमाणित होते हैं। तुलसी राम से चाहते क्या हैं, यह विचारणीय है, क्योंकि इससे कवि का समाजदर्शन उद्घाटित होता है। तुलसी पूरे समाज के लिए कलिकाल से मुक्ति की कामना करते हैं, वह कलिकाल जो 'अवगुन-आगार' है, जहाँ मूल्य-मर्यादाएँ बिला गई हैं। तुलसी अपने समय-समाज को उच्चतर मूल्य-संसार में ले चलने के आकांक्षी हैं, जिसे उदात्त भक्तिभाव कहा गया। यह भक्तिभाव कर्म और आचरण पर आश्रित है और रामकथा में इसे देखा जा सकता है, विशेषतया मानसिक रूपांतरण में। बालि से राम कहते हैं : अचल करौं तनु राखहु प्राना। पर बालि केवल राम में अनुराग की कामना करता है : जेहि जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागहूँ। रामभक्ति का अर्थ कर्मकांड नहीं है, राम को प्रेरणा-पुरुष मानकर उनके आचरण का अनुगमन है। राम में कर्म, मूल्यभरे कर्म की जो सामाजिक चेतना है, वह उन्हें सौंदर्य देती है और सौंदर्य सामाजिक कर्म में होता है, शारीरिक इकाइयों में नहीं। राम सामाजिक
180 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन