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न कोउ कुल रोबनिहारा।
राम-सीता का व्यक्तित्व निर्मित करते हुए, तुलसी के समक्ष कुछ चुनौतियाँ भी हैं। वे इन्हें अपने समय-संदर्भ में सामाजिक दृष्टि से सार्थक बनाना चाहते हैं, पर यह अभीप्सा भी कि समय को पार करते हुए, उनमें एक निरंतरता बनी रहे। समय बदलेगा, अवधारणाओं में परिवर्तन होगा, पर काव्यनायक के व्यक्तित्व की कुछ इकाइयाँ ऐसी होनी ही चाहिए, जो लंबे काल तक विद्यमान रहें। राम का देवत्व मनुष्य रूप में सामाजीकृत होता है, जिससे साधारणीकरण में कठिनाई नहीं उपस्थित होती। सीता हरण, लक्ष्मण-मूर्छा आदि प्रसंगों में तुलसी राम को सहज मानुष भूमि पर संचरित करते हैं जिससे उनका व्यक्तित्व सामान्यजन का समीपी बनता है। वे अपनी करुणा को समाज के लिए अर्पित करते हैं, सराहनीय होते हैं और संघर्ष में विजय प्राप्त कर सबके वंदनीय बनते हैं। इस प्रकार एक ही राम में व्यक्तित्व की कई इकाइयाँ संयोजित होकर उन्हें पूर्णता देती हैं। उनमें कृष्ण की खुली रंगारंग भूमि नहीं है क्योंकि तुलसी राम को मूल्य-मर्यादा की भूमि पर रचते हैं, पर उनकी सामाजिक विश्वसनीयता और स्वीकृति व्यापक है। सीता के लिए विलाप करते हुए राम विषाद-डूबे मनुष्य हैं : आश्रम देखि जानकी हीना, भए बिकल जस प्राकृत दीना। 'गुन खानि' कहकर वे सीता के गुणों का स्मरण करते हैं : रूप सील ब्रत नेम पुनीता। फिर प्रिया का रूप याद आता है और मनःस्थिति ऐसी अवसादग्रस्त कि पशु-पक्षी भी उसमें सम्मिलित हैं : हे खग-मृग हे मधुकर श्रेनी, तुम्ह देखी सीता मृगनैनी । तुलसी राम को मनुष्य की नितांत सहजभूमि पर लाते हैं : एहि विधि खोजत बिलपत स्वामी, मनहुँ महा बिरही अति कामी। राम का अवतारी देवत्व मानुष रूप में प्रभावी बनता है, विश्वसनीय और उसमें सब सम्मिलित होते हैं। लक्ष्मण-मूर्छा के समय करुण प्रसंग है : उहाँ राम लछिमनहि निहारी, बोले बचन मनुज अनुसारी। फिर राम की पीड़ा है : बहु विधि सोचत सोच बिमोचन, स्रवत सलिल राजिव दल लोचन । तुलसी जानते हैं कि राम को मानुष रूप में सहज भाव से संचरित कर ही उनकी विश्वसनीयता प्रमाणित की जा सकती है। पर उनका रूप कृष्ण से इस अर्थ में भिन्न है कि यहाँ मर्यादा की रेखाएँ निश्चित हैं और इन्हें पार करते हुए भी, वे सजग-सावधान हैं। मर्यादाओं का यह निर्वाह राम के व्यक्तित्व को प्रणम्य बनाता है, इसलिए स्वामिदास भाव तुलसी का प्रतिपाद्य है, पर सूर को सखा-भाव की सुविधा है। जीवन-दृष्टि से कविता की दिशा निर्धारित होती है और ऐसा प्रतीत होता है कि तुलसी समय के विकल्प रूप में तुलसी का चरित्रांकन करते हुए, मर्यादा-मूल्य से परिचालित हैं जिसे नैतिकता कहा गया।
राम को विचार और कर्म से संयोजित कर तुलसी उनके व्यक्तित्व को पूर्णता देते हैं। विचार ही कर्म निष्पादित करते हैं, जिससे दीप्त आती है। मूल्यहीन कर्म निष्प्रयोजन हैं, जिसे देव-दानव संघर्ष में देखा जा सकता है। संभवतः इसीलिए तुलसी
182 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन