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स्तर तक पहुँचता भ्रातृत्व भाव । ग्लानि - डूबे भरत जब चित्रकूट पहुँचते हैं, तो वह पूरा प्रसंग ही अत्यंत मार्मिक है : भरत चरित कीरति करतूती, धरम सील गुन विमल विभूती । राम को संबोधित करते हुए भरत कहते हैं : प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम । ग्लानि और विषाद में डूबे भरत जब राम से अयोध्या लौट चलने के लिए अनुनय-विनय करते हैं, तो तुलसी की संवेदनशीलता अपने चरम शिखर पर है, जैसे वे भी इस भावना में सम्मिलित हैं। जिस मध्यकाल में सामन्तों की रक्तपाती टकराहट हो, ऐसे में भरत का त्याग एक सामाजिक मर्यादा की स्थापना करता है क्या होगा सिंहासन और रत्नजड़ित राजमुकुट लेकर ? सर्वोपरि है, वह मूल्य संसार जिसके आचरण से मनुष्य मनुष्य है, अन्यथा शेष है ही क्या ? तुलसी ने भरत के भावों को चित्रित करते हुए जिस उपमा का उपयोग किया है, वह विचारणीय है : भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ । सहित समाज सराहत राऊ सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे । अरथु अमित अति आखर थोरे
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ज्यों मुखु मुकुर मुकुर निज पानी । गहि न जाइ अस अद्भुत बानी । भरत, राम के अनंतर तुलसी की सर्वोतम निर्मिति हैं, जहाँ महाकवि भक्ति को पूर्णता पर पहुँचाते हैं। सीता के प्रति कवि का आदर भाव, एक दूरी-सी बनाए रखता है । वे माँ को पूज्य मानकर संकेत से ही कहते हैं, पर भरत को वे प्रतीक की संपूर्णता तक पहुँचाना चाहते हैं । एक ओर वे सामंती मूल्यों का निषेध करते हैं, दूसरी ओर भक्ति का अन्यतम प्रतिमान बनते हैं। राम को भरत सर्वस्व मानकर उनके लिए एक साथ अनेक सम्मानसूचक संबोधनों का उपयोग करते हैं : प्रभु पितु मातु सुहृद गुरु स्वामी, पूज्य परम हित अंतरजामी/ सरल सुसाहिब सील निधानू, प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू / समरथ सरनागत हितकारी, गुनगाहकु अवगुन अघ हारी । राम सर्वोपरि हैं : सो गोसाइं नहिं दूसर कोपी, भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी । तुलसी ने इस प्रसंग को विस्तार दिया, अपने भक्तिदर्शन की व्याख्या के लिए, जिसमें कवि का समाजदर्शन भी सन्निहित है । 'विनयपत्रिका' का कवि इस प्रसंग में अपनी पूरी संलग्नता से उपस्थित है, भरत के साथ । राम की चरणपादुकाओं के सहारे नन्दिग्राम की पर्णकुटी से भरत अयोध्या की व्यवस्था देखते हैं और उनके इस तपस्वी रूप का वर्णन तुलसी ने विस्तार से किया है : कीन्ह निवास धरम धुरि धीरा; तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा, चंचरीक जिमि चंपक बागा । ऐसा त्याग समाज में एक अनुकरणीय प्रतिमान है और उत्तरकांड में भरत का चित्र है : राम राम रघुपति जपत, स्रवत नयन जलजात। राम-भरत का मिलन है : परे भूमि नहिं उठत उठाए, बर करि कृपासिंधु उर लाए । तुलसी ने भरत में प्रेम - विनय - त्याग, भक्ति का संयोजन किया है, उन्हें त्याग तप के उच्चतर वैकल्पिक मूल्य के रूप में स्थापित किया है। अयोध्याकांड का समापन अंश उल्लेखनीय है जिसमें तुलसी भरत जैसे उदात्ततम चरित्र को प्रश्न के उत्तर रूप में देखते हैं :
तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 18,