Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 215
________________ चाहिए । मध्यकालीन कट्टरपंथियों से टकराते हुए भक्तिकाव्य ने सांस्कृतिक सौमनस्य का जो भाव प्रतिपादित किया, उसकी प्रासंगिकता लंबे समय तक बनी रहेगी। जिस एकेश्वरवाद का आग्रह भक्तिकाव्य में किया गया, उसकी व्याप्ति व्यापक है, और वह केवल दार्शनिक विवाद का प्रश्न नहीं है । गोपिकाएँ उद्धव से कहती हैं कि एक ही मन था, वह कृष्ण ले गए, अब किसकी आराधना की जाय ? द्वैत-अद्वैत का सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष भक्तिकाव्य में जातीय सौमनस्य का आग्रह भी करता है, जहाँ सब समान हैं। राम-रहीम एक हैं और भक्ति में जाति-बिरादरी के लिए कोई स्थान नहीं है, सब परमज्योति से प्रकाश पाते हैं । देवता भीतर वास करते हैं, बाहर नहीं, और शुद्ध आचरण से स्वयं को आलोकित किया जा सकता है। कबीर 'प्रेमनगर' की बात करते हैं, ज्ञान - समन्वित प्रेमभाव और उनका आग्रह 'सत्त धर्म' (सत्य) पर है : ' अवधू बेगम देस हमारा, राजा - रंक - फकीर - बादसा, सबसे कहौं पुकारा/ जो तुम चाहो परम पद को, बसिहौ देस हमारा' और यह 'देस' उच्चतर मूल्य-लोक है। 1 भक्ति की प्राचीन परंपरा में सिद्ध- नाथ संप्रदाय की चर्चा प्रायः की जाती है, पर कुछ बातें विचारणीय हैं । क्रांतिकारी बौद्धदर्शन की निगतिकालीन प्रतिक्रियावादी परिणति में जो तंत्रवाद प्रभावी हुआ, उसने काव्य की सामाजिक चेतना की धारा अवरुद्ध कर दी। आरंभिक विक्षोभ ने सामान्य वर्ग को उद्वेलित किया, पर यह सर्जन यात्रा एक बिंदु पर आकर रुक-ठहर गई, और भक्तिकाव्य ने उसे नए सकारात्मक' ढंग से अग्रसर किया। पीठिका में वह उपस्थित है और उसकी ऐतिहासिक भूमिका, स्वीकारी जाती है, संक्षिप्त ही सही, पर भक्तिकाव्य अधिक दायित्वपूर्ण सृजन का दावा कर सकता है। भक्ति ने निवृत्ति, वैराग्य, संन्यास के पलायन पंथ के स्थान पर प्रवृत्ति का कर्म-भरा मार्ग चुना और उसे परिभाषित किया । सर्वत्र विधाता है तो फिर जाओगे भी कहाँ ? यही तर्क प्रत्यभिज्ञा दर्शन में है। मुक्ति वैयक्तिक नहीं होती, वह सबके साथ है और जीवन से पलायन अपने दायित्व से बचने का प्रपंच है । भक्ति के लिए एकाकी वैराग्य कोई अनिवार्यता नहीं, जीवन-संग्राम के बीच भी, मूल्य-संसार पाया जा सकता है। गृहस्थ भी भक्ति का अधिकारी है और वह अपने दायित्वों का पालन करते हुए, उच्चतर मूल्य-संसार से अपना संबंध स्थापित कर सकता है । इस प्रवृत्तिमार्गी दर्शन से भक्तिकाव्य की सामाजिक विश्वसनीयता में वृद्धि हुई । प्रायः माया का उल्लेख भक्तिकाव्य के संदर्भ में किया जाता है और निर्गुणियाँ कवियों के उद्धरण दिए जाते हैं । पद्मावत के उपसंहार के सहारे नागमती को 'दुनिया-धंधा' मान लिया जाता है और यह तर्क भी दिया जाता है कि रत्नसेन पद्मावती का वरण उच्चतर आलंबन के रूप में करता है । जायसी के प्रसंग में इसकी चर्चा हो चुकी है कि पद्मावत की पूरी संघर्ष - कथा है, जिसमें प्रेम - वीरता एक साथ उपस्थित हैं । माया की सर्वाधिक चर्चा कबीर के प्रसंग में होती है, पर एकांगी ढंग से । दार्शनिक वाद-विवाद को फिलहाल छोड़ दें, जहाँ ब्रह्म- जीव-माया के संबंधों की व्याख्याएँ विस्तार 220 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन

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