Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 220
________________ को नीचे से ऊपर की ओर अग्रसर होने वाले आंदोलन के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें सामान्य वर्ग और साधारण यहाँ तक कि निम्न कही जाने वाले बिरादरियों की साझेदारी है। इसके पूर्व वैष्णवाचार्यों की जो बौद्धिक सक्रियता थी, उसमें प्रयत्न यह कि दार्शनिक व्याख्या अंतःस्रवित होकर रचना में प्रवेश करे । भक्तिकाव्य ने शास्त्रीयता के इस अवरोध को पार किया और लोकजीवन से संपृक्ति का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इस संदर्भ में अध्यात्म - रहस्यवाद के साथ लौकिक-अलौकिक का प्रश्न भी उठाया जाता है । रचना में अलौकिकता का स्वरूप क्या होगा, भक्तिकाव्य में यह विचारणीय प्रश्न है । परम सत्ता की उपस्थिति है, चाहे निर्गुण हो अथवा सगुण और वह अनुभूति का क्षेत्र है, कई बार वर्णनातीत । यह प्रश्न का दार्शनिक पक्ष है, पर कविता दर्शन अथवा विचार का अविकल अनुवाद नहीं है । ऐसी स्थिति में भक्तिकाव्य के समक्ष यह चुनौती भी कि गाथा - संसार का कविता में उपयोग करते हुए, इस द्वंद्व को पार कैसे किया जाय ? यदि उसका चमत्कारी पक्ष है, तो भी लोकजीवन में प्रवाहित होकर, वह एक बिंदु पर अपनी असाधारणता खो दे, सामान्यीकृत हो जाय - चरित्र के धरातल पर । इसी के साथ यह भी कि वह अपने समग्र व्यक्तित्व साधारणता के बीच असाधारणता का बोध करा सके। कहीं यह कार्य मानवीय क्रियाकलाप के माध्यम से होता है और कहीं प्रतीकात्मकता से । जायसी के संदर्भ प्रायः कहा जाता है कि उनमें लौकिकता से अलौकिकता के संकेत हैं। पर कविता में अलौकिकता मानवीय मूल्य संसार के भीतर से निःसृत होकर ही विश्वसनीय बनती है । धार्मिक रचना और भक्तिकाव्य में यही मूल अंतर है क्योंकि दोनों के मार्ग भिन्न हैं । धार्मिकता की दृष्टि असाधारणता पर रहती है, पर कविता सहज - साधारण के माध्यम से विराट का बोध कराती है। पद्मावती को यदि पारसमणि के रूप में न भी देखा जाय, तो भी वह अनिंद्य सौंदर्य की रूपवती नारी है, सहज सुभाव से हंसती है तो : तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी । उदात्त चरित्र निर्मित करते हुए, भक्तकवि उन्हें अपने समय के नए प्रतिमान का रूप भी देना चाहते हैं, इसे भी ध्यान में रखना होगा । लौकिक से अलौकिक, साधारण से असाधारण के संकेत में कवि की सर्जनात्मक कल्पना के साथ, उनकी यह अभीप्सा भी कि समय का बेहतर विकल्प खोजा जाय । भक्तिकाव्य में विरोधाभास तथा अंतर्विरोधों की चर्चा भी की गई है, पर इसे समय की सीमाओं के रूप में देखना होगा । भक्तकवियों ने एक कठिन समय में रचना-धर्म का निर्वाह किया, क्या यह सराहनीय नहीं है ? यह भी उल्लेखनीय कि उन्होंने कई सीमाएँ पार कीं और स्वयं को जनांदोलन से संबद्ध किया तथा रचना - स्तर पर उसे गति देने का प्रयास भी किया। इस दृष्टि से उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका निश्चित ही उल्लेखनीय है । 'भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य' में मैनेजर पांडेय इस अवदान को स्वीकारते हैं : 'भक्ति आंदोलन जनसंस्कृति के अपूर्व उत्कर्ष का अखिल भारतीय आंदोलन है । ऐसे आंदोलन में अनेक स्वरों का समावेश भक्तिकाव्य का समाजदर्शन / 225

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