Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 224
________________ तुलसी की भाषा का वैविध्य विशेष रूप से विचारणीय है। ब्रजभाषा में भी उनकी रचनाएँ हैं-विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली आदि पर उनका कीर्ति-काव्य अवधी में रचा गया। तुलसी में तद्भव-तत्सम का संयोजन उनकी भाषा को ऐसी समृद्धि देता है जो भक्तिकाव्य में विरल है। यद्यपि सभी भक्तिकवि लोकभाषा से अपनी अभिव्यक्ति-सामर्थ्य प्राप्त करते हैं, पर तुलसी उसे नया विन्यास भी देते हैं। जीवन की जितनी छवियाँ रामचरितमानस में उभरी हैं, उनके साथ न्याय कर सकने के लिए भाषा की यह विविधता अनिवार्य थी। बिना किसी अविश्वसनीय आकस्मिकता के दृश्यों को बदलने में भाषा तुलसी की सहायता करती है। ज्ञान-भक्ति आदि के विवेचन में भाषा का दार्शनिक आधार दिखाई देता है, पर उसे काव्य-विषय बनाने के लिए वे उपमाओं का उपयोग करते हैं। माँ कैकेयी के प्रति क्षोभ व्यक्त करते हुए, भरत की भाषा में आक्रोश है : वर माँगत मन भइ नहिं पीरा, गरि न जीह, मुँह परेउ न कीरा। पर भरत की भाषा भक्ति का प्रतिमान बनती है और उनके एक ही वक्तव्य में कई भूमियों का संस्पर्श करती है-विनय, करुणा, पश्चात्ताप, अनुनय, समर्पण आदि : मही सकल अनरथ कर मूला, सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला आदि। प्रसंगानुकूल भाषा तुलसी का कौशल है, जिसके माध्यम से वे हर दृश्य को अंकित करने में सक्षम हैं और यहाँ वे अपने समकालीनों में विशिष्ट हैं। जनक-वाटिका प्रसंग में भाषा-लालित्य का विवेचन हो चुका है, पर वन मार्ग का दृश्य भी है जहाँ स्नेह-संकोच का निर्वाह एक साथ हुआ है : खंजन मंजु तिरीछे नयननि, निज पति कहेउ तिन्हहिं सियं सयननि। वीरता के प्रसंग में भाषा के तेवर बिलकुल बदल जाते हैं, यद्यपि वहाँ वर्णनात्मकता अधिक है। जहाँ तुलसी की चेतना रमती है, वहाँ भाषा का प्रवाह अबाध गति से अग्रसर होता है, सहज भाव से। शब्द और अर्थ की अभिन्नता को राम-सीता-युग्म के रूप में 'मानस' में देखा गया है, कविता इसे चरितार्थ करती है। निषाद में रोष जन्म लेता है : आजु रामसेबक जस लेऊँ, भरतहिं समर सिखावन देऊँ। दशरथ-कैकेयी संवाद के प्रसंग में भाषा अयोध्या-नरेश की व्यथा और उनके अंतःसंघर्ष को व्यक्त करने में कई स्तरों पर चलती है-सुमुखि, सुलोचनि, पिकबचनि के श्रृंगारी संबोधनों से लेकर, अनुनय-विनय से गुजरती यह भाषा यथार्थ के सामने है : फिरि पछितैहसि अंत अभागी, मारसि गाइ नहारू (तांत) लागी। सूर में ब्रज को और जायसी-तुलसी में अवधी को जो लयात्मकता प्राप्त हुई, वह लोकभाषा की देन है और उसने इन कवियों को जनता के कंठ तक पहुँचा दिया। कबीर की ठेठभाषा सामान्यजन की समीपी है। मीरा जिनका संवेदन-संसार सीमित है, वे भी अपनी गीतात्मकता में कीर्तन से जुड़कर, जनमानस की समीपी हुईं। भक्तिकाव्य ने प्रचलित छंदों को लोकगायन की परंपरा में नया विन्यास देकर, कविता को सुग्राह्य बनाया। भक्तिकाव्य की संपन्नता का आधार, भाव के साथ अभिव्यक्ति में भी लोकजीवन की संपृक्ति है। जीवन में प्रचलित लोककथा, लोकगीत, लोकोक्तियाँ आदि भक्तिकाव्य का समाजदर्शन । 229

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