Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 225
________________ का सक्षम उपयोग इसे किसी भी प्रकार के अलगाववाद से बचाता है । एक प्रकार से यह संबोधन का काव्य है और कवियों के समक्ष जैसे श्रोता समाज निरंतर उपस्थित है। रामचरितमानस के वक्ता - श्रोता युग्म की चर्चा हो चुकी है, पर सभी कवि संबोधनवाचक शब्दावली का प्रयोग करते हैं । कबीर में बराबर इसका उपयोग है : सुनो भाई साधो, संतो भाई आई ज्ञान की आँधी, साधो देखो जग बौराना, मेरा-तेरा मनुवाँ कैसे एक होय रे आदि । तुलसी की विनयपत्रिका संबोधन काव्य का अन्यतम उदाहरण है। सूर की गोपिकाओं के उपालंभ के लिए मधुकर भ्रमर है । विचारणीय यह कि जब भक्तकवि स्वयं को संबोधित करता है, तब भी वह आत्मालाप नहीं है, इस प्रक्रिया में श्रोता उपस्थित हैं । कथावाचन की लंबी मौखिक परंपरा भारत में रही है, पर रचना में भी वक्ता - श्रोता की नियोजना की गई। रामायण के आरंभ में नारद वाल्मीकि को रामकथा सुनाते हैं और समापन अंश में लव-कुश इस काव्य को गायन रूप में प्रस्तुत करते हैं । आदिपर्व के आरंभ में सूतनन्दन उग्रश्रवा नैमिषारण्य क्षेत्र में ऋषियों को महाभारत की कथा सुनाते हैं। गीता कृष्ण-अर्जुन के वार्तालाप रूप में रची गई और भागवत - माहात्म्य में शौनक, सूत, नारद, उद्धव और स्वयं भक्ति उपस्थित हैं। अध्यायों में प्रश्न-उत्तर के रूप में पात्र बदलते रहते हैं और पूरी कथा इसी रूप में निर्मित हुई है, जिसमें वक्ता शुकदेव तथा श्रोता परीक्षित प्रमुख हैं । कथा - वाचन की इस प्रचलित शैली को भक्तिकाव्य ने नया विन्यास दिया क्योंकि कवियों का उद्देश्य मात्र कथा कहना नहीं था । इस माध्यम से वे लोकजीवन का उपयोग करते हुए, किसी काव्य-सत्य को प्रतिष्ठित भी करना चाहते हैं। समाज की पीठिका पर निर्मित, यह भक्ति का काव्य-संस्करण है, जिसे समाजदर्शन कहा जा सकता है। पाप-पुण्य, सत्-असत् के संघर्ष में उच्चतर मूल्यों की विजय घोषित करने की सुविधा कथाश्रित काव्य में है । पर जायसी का पद्मावत ऐसे काव्य-न्याय का पालन नहीं करता, वहाँ तो रत्नसेन युद्ध में मारा जाता है और पद्मावती सती हो जाती है। फिर भी काव्य से मूल्य निष्पादित करने का संकल्प पूरा होता है कि व्यर्थ के संघर्ष का अंत क्या है ? छार उठाइ लीन्ह एक मूठी, दीन्ह उड़ाइ पिरथिमी झूठी । इसी क्रम में कहा गया कि : जौ लहि ऊपर छार न परै, तौ लहि यह तिस्ना नहिं मरै । भक्तिकाव्य प्राचीन शंका-समाधान शैली को नए रूप में प्रस्तुत करते हुए, विचार - संवेदन की मैत्री स्थापित करता है और सबको सीधे ही संबोधित करने का संकल्प लेता है। इससे ईश्वर मनुष्य के बीच किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं रह जाती और दोनों में उदात्त रागात्मक मानवीय संबंध स्थापित होते हैं । कर्मकांड-पुरोहितवाद का जाल टूटता है और वृहत्तर जनसमुदाय भक्तिकाव्य में साझेदारी करता है । श्रव्य-दृश्य का द्वैत भी यहाँ टूटता है क्योंकि कवि के सामने श्रोता दर्शक रूप में उपस्थित है 1 संकेत किया जा चुका है कि अरसे तक भक्तिकाव्य में प्रतिपादित जीवन - दृष्टि, 230 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन

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