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समाजदर्शन के प्रति पूर्ण न्याय नहीं हो सका। देवत्व से संबद्ध होने के कारण कुछ मठाधीशों को इसके माध्यम से व्यवसाय की सुविधा थी। क्या यह त्रासद नहीं कि लोकवादी दृष्टि का आग्रही भक्तिकाव्य, जो मध्यकाल की सामंती सीमाओं में वैकल्पिक मूल्य-संसार का स्वप्न देखता है, जिसमें कबीर का विद्रोह, जायसी का प्रेम, सूर की रागमयता, तुलसी का लोकधर्म, मीरा का समर्पण एक साथ उपस्थित हैं, उसे कई प्रकार की प्रतिक्रांतियों का शिकार होना पड़ा। अंधभक्ति जब व्यवसायीकरण की
ओर सप्रयोजन ढंग से मुड़ती है, तब इस प्रकार की दुर्घटनाएँ होना स्वाभाविक है। काव्य देव-परिचालित है, इसलिए कुछ समय तक वह तथाकथित आधुनिकतावादियों के अध्ययन का विषय नहीं बन सका, जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे विचारवान आलोचक उसे बौद्धिक प्रस्थान दे चुके थे। पर आज स्थिति यह है कि समकालीन भी किसी बिंदु पर उससे साक्षात्कार के लिए विवश हैं। परंपरा एक अनवरत प्रक्रिया है, विशेषतया भारत जैसे प्राचीन देश में और उसका जो सर्वोत्तम जीवंत अंश है, उसे नए संदर्भ में जानने-समझने से नई रचनाशीलता भी प्रकारांतर से संवेदन-समृद्ध होती है। रचना का इतिहास इस अर्थ में प्रत्यावर्तित नहीं होता कि उसे दुहराया जा सके, क्योंकि वह अपने समय-समाज से टकराकर अग्रसर होता है। पर गहरे अर्थ में जीवंत परंपरा को समझे बिना रचना कई बार एक ऐसी अपदस्थ स्थिति में होती है कि 'पानी केरा बुदबुदा अस रचना की जाति'। स्वीकृति-निषेध, संचयन-विद्रोह की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से होकर ही महान् रचनाएँ उच्चतर धरातल पर पहुँचती हैं। भक्तिकाव्य का यह पक्ष विचारणीय कि कैसे वह समय की इतनी लंबी यात्रा पारकर हमारे बीच उपस्थित है और इसका संबंध केवल देवत्व की अभिव्यक्ति से नहीं, वरन उसकी 'मानुष-दृष्टि' से है, जिसे कई नामों से अभिहित किया जाता है। इसे पूर्णता देने के लिए भक्तिकाव्य ने पूरे विन्यास में विचार-संवेदन से लेकर शिल्प तक-लोक को अपने ध्यान में रखा है। आधुनिक संदर्भ में विचार करें तो वैज्ञानिक प्रगति का व्यवसायीकरण चिंता का विषय भी होना चाहिए, क्योंकि विज्ञान मूलतः सत्यान्वेषण है, यथार्थ की पहचान का प्रयत्न। अमानुषीकरण से कई स्तरों पर जूझता समय आखिर प्रेरणा के लिए कहाँ जाएगा ? विश्व की सर्वोत्तम रचनाशीलता, बदले समय-संदर्भ में किंचित् सहायक हो सकती है। भक्तिकाव्य, जो जनांदोलन की पीठिका पर आया, जिसे मध्यकालीन जागरण कहना अधिक उचित होगा, अपने समय से वैचारिक स्तर पर टकराने का साहस करता है, और एक नए मूल्य-जगत् का संकेत करता है। क्या यह सीख नहीं देता कि रचना संपूर्ण अंध समर्पण से बचकर ही, अपनी रक्षा, तो कर ही सकती है, वह ऐसा मानव-विवेक भी उपजाती है कि मात्र शब्द न रहे, वह संस्कृति की समानधर्मा भी बने। भक्तिकाव्य ने इस दृष्टि से अपनी विश्वसनीयता प्रमाणित की, संवेदन-स्तर पर और कवियों को स्वीकृति मिली। 'कवितावली' में समय का यथार्थ और उच्चतर विकल्प आमने-सामने हैं (उत्तर. 25) :
भक्तिकाव्य का समाजदर्शन / 231