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रीति महाराज की, नेवाजिए जो माँगनों, सो दोष- दुख-दारिद दरिद्र कै कै छोड़िए नामु जाको कामतरु देत फल चारि, ताहि तुलसी बिहाइ कै बबूर रेंड गोड़िए जा को नरेस, देस - देस को कलेसु करै
हैं प्रसन्न वै बड़ी बड़ाई बौंड़िए कृपा-पाथनाथ लोकनाथ - नाथ सीतानाथ
तजि रघुनाथ हाथ और काहि ओड़िए भक्तिकाव्य के प्रसंग में यह प्रश्न भी उठाया गया है कि सामाजिक-सांस्कृतिक रूपांतरण में उसकी भूमिका क्या थी ? उसकी सीमाओं का उल्लेख भी किया जाता है और टुकड़ों में बाँटकर देखने की चतुराई भी । रचना को खंड-खंड देखने की प्रक्रिया सही नहीं होती, इसकी चर्चा हो चुकी है और यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि सच्चे संदेह से तो आलोचना - यात्रा का आरंभ हो सकता है, पर हठभरे पूर्वाग्रह से नहीं । ज़िद कोई भी हो, रचना में उसकी सकारात्मक भूमिका तभी होती है, जब वह सर्जन का संकल्प हो, जिसे प्रसाद ने 'संकल्पात्मक अनुभूति' कहा है। यह तो एक वैचारिक प्रश्न है कि कला, विशेषतया साहित्य की सामाजिक रूपांतरण में क्या भूमिका होती है ? शब्द किस सीमा तक और किस रूप में कारगर हस्तक्षेप करने में सक्षम होते हैं ? क्रांतियों के मूल में शब्द - अवधारणाएँ हैं, पर परिवेश बनाने में ही उनकी प्रमुख भूमिका है, अस्त्र-शस्त्र के रूप में उनका उपयोग हठी बालपन कहा जाएगा। उनकी प्रेरणा तो है, भीतरी - उद्वेलन की क्षमता भी, पर कार्यविधि, रणनीति, व्यूह रचना आदि के लिए सामाजिक संगठन की जरूरत होती है, राजनीति जिसका एक पक्ष है । साहित्य सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन का प्रवक्ता है और यहीं उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है। इस संदर्भ में दो समाजशास्त्रियों को उद्धृत करना चाहूँगा। श्यामाचरण दुबे साहित्य और समाज के अंतस्संबंधों पर विचार करते हुए कहते हैं : 'लेखक और उसके परिवेश के सावयवी संबंध होते हैं, वह सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण से बहुत कुछ ग्रहण करता है, और साथ ही थोड़े-बहुत अंशों में उन्हें प्रभावित और परिवर्तित भी करता है । यदि लेखक अपने-आपको व्यापक सामाजिक संदर्भ से काट लेता है तो उसकी रचना में कला भले ही रहे, जीवन का स्पंदन नहीं होता। वर्ग या समुदाय का संकुचित घेरा उसे समाज के सार्वभौम सत्यों से साक्षात्कार नहीं करने देता । साहित्य में परंपरा की अभिव्यक्ति और व्याख्या होती है, और इसके माध्यम से इन परंपराओं को स्थायित्व भी मिलता है । साथ ही साहित्य इन परंपराओं का मूल्यांकन करता है और सतत नए अर्थों और प्रयोजनों की खोज भी । ये प्रयत्न स्थितियों की नई व्याख्या को जन्म देते हैं । इन व्याख्याओं में होने वाले परिवर्तन मानव की विचार-प्रक्रियाओं को एक नया आधार देते हैं । इस तरह साहित्य में यदि एक ओर
232 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन