Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 221
________________ कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जो आंदोलन समाज के विभिन्न वर्गों, उपवर्गों और समुदायों के जीवन की वास्तविकताओं तथा आकांक्षाओं से जुड़ा हो उसमें अनेक संवादी और विसंवादी स्वरों का सहअस्तित्व स्वाभाविक ही है। यह स्थिति हिन्दी ही नहीं, दूसरी भारतीय भाषाओं के भक्तिकाव्य में भी दिखाई देती है' (पृ. 45)। आश्चर्यजनक यह कि जिस भक्तिकाव्य को प्रपत्ति-समर्पण की पृष्ठभूमि में देखा जाता है, उसमें ललकार का स्वर भी उनके समाजदर्शन को तेजस्विता देता है। यह चुनौती कई स्तरों पर है और अलग-अलग रीति-नीति से। कबीर बाजार में खड़े हैं, हाथ में लुकाठी लिए और सबको फटकारते चलते हैं। अपने समय से इतने असंतुष्ट कि आक्रोश व्यंग्य का रूप धारण करता है और भाषा ऐसी दोट्रक कि सुननेवाला तिलमिला जाय। पर कबीर इसी नकारात्मकता में रुक जाते, तो उनके संवेदन की उदारता का चित्र एक प्रकार से अपूर्ण रह जाता। उनका आक्रोश परिवर्तनकामी है, और विक्षोभ को सकारात्मक दिशा देते हुए, विकल्प का संकेत करता है। मध्यकालीन कृषि शब्दावली का प्रयोग करते हुए, लंबे पद में वे कहते हैं : अब न बतूं इहिं गांउ गुसाईं। यहाँ शरीर ही गाँव है, जो इन्द्रिय-नियंत्रित है। कठोर कर्मचारी, खोटा मुखिया, भयंकर लगान वसूलने वाला आदि। इसकी एक ध्वनि विकृत व्यवस्था को लेकर है, दूसरी का संबंध मूल्यचिंता से है और दोनों अंतर्भुक्त हैं। खंड-खंड देखने की प्रक्रिया सही नहीं होती, इसका उल्लेख किया जा चुका है। विरोधाभासों पर टिप्पणी कहीं भी की जा सकती है, पर यह सर्वविदित तथ्य है कि समय की सीमाएँ होती है। भक्तिकवियों का आत्मसंघर्ष तो विचारणीय है ही क्योंकि वे राजाश्रय के मुखापेक्षी नहीं थे, किसी अर्थ में धारा से विपरीत दिशा में चलने का साहस कर रहे थे, पर उनके आत्मालोचन की ओर भी ध्यान जाना चाहिए। यह आलोचना-दृष्टि स्वयं से आरंभ होती है, विनय-दैन्य के माध्यम से और स्वयं को दीन-हीन कहने का प्रयोजन आरोपित विवश विनय नहीं है, उसमें सब सम्मिलित तो हैं ही, पर इस विवशता को लाँघकर ही वृहत्तर लोक में पहुंचा जा सकता है। नाम कोई भी दें, अतिक्रांत भाव से लेकर आत्मविस्तार, सामाजीकरण तक, पर भक्तिकाव्य ने अवरोध पार किए, इसे स्वीकारना होगा। देवत्व, शास्त्रीयता, पंडिताई, देवभाषा आभिजात्य आदि के प्रचलित मार्ग के स्थान पर उन्होंने नए पथ का संधान किया। सूर को कृष्ण तक सीमित कर दिया जाता है, पर उनके प्रार्थना पद इस दृष्टि से विचारणीय हैं कि समय से उनकी सहमति नहीं दिखाई देती, जो स्थिति कबीर, तुलसी में बहुत स्पष्ट है। सूर के एक पद में अनेक विकार-बोधक शब्द एक साथ आए हैं, समय की दुर्दशा दर्शाते (186)। उसके पहले एक लंबा पद है, जिसमें ग्राम-जीवन की शब्दावली के माध्यम से मध्यकाल की मूल्यहीनता बिम्बित है (185) : प्रभु जू यौं कीन्हीं हम खेती बंजर भूमि, गाउँ हर जोते, अरु जेती की तेती 226 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन

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