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से हुई हैं । ईश्वर, जिसे निर्गुण-निराकार पंथ में 'निरंजन' कहा गया- कबीर से लेकर गुरु नानक तक, उसकी सत्ता सर्वोपरि है । पर जिसे माया कहा गया, उसकी भी कई अर्थ ध्वनियाँ हैं और वह अनेकरूपा है। एक बिंदु पर वह विधाता की शक्ति भी है, जिसके माध्यम से वह स्वयं को व्यक्त करता है - नाना रूपों में, पर ईश स्वयं निर्लिप्त है, असंग, इसलिए परम शुद्ध, विशुद्ध, विशिष्ट है। राम कृष्ण कर्मभरी लीलाओं के बीच अपनी शुद्धता में सुरक्षित हैं, पर काव्य में जब उनका अवतरण होता है, तो यह दार्शनिक मंतव्य टूटता है, क्योंकि रचना संवेदन- प्रयत्न है । काव्य का समापन निर्वेद भाव शांत रस में हो सकता है, पर जो कर्म - संसार देवत्व को केंद्र में रखकर रचाया गया है, उसमें काव्यनायक की भूमिका तटस्थ कैसे हो सकती है ? इसके लिए प्रतीकात्मक-आध्यात्मिक समाधान कोई अनिवार्यता भी नहीं है, जैसे कृष्ण - चरित के संदर्भ में। कबीर माया का प्रयोग बार-बार करते हैं, पर मेरे विचार से वह वेदांती अर्थ तक सीमित नहीं है । वे एक सजग कवि हैं, सामाजिक चेतना से संपन्न प्रखर प्रतिभा - पुरुष, इसलिए समय-समाज से आंदोलित हैं। बल्कि यह कहें कि यथार्थ उनके सामने पहले आता है, जिससे वे जूझते हैं, फिर दार्शनिक शब्दावली आती है जो उन्होंने प्रचलित परंपरा से प्राप्त की, पोथियों से नहीं । इस अनेकरूपा माया का ऐसा संक्रामक - दुष्प्रभाव कि कोई इससे नहीं बच सका: रमैया की दुलहिन लूटा बजार और तीनों लोक में हाहाकार मच गया। माया का वह रूप कबीर के सामने है, जिसे वे देख रहे थे : भोग-विलास, देहवाद, छद्म, आडंबर, मिथ्या कर्मकांड, वैमनस्य आदि । इसलिए उन्होंने आग्रह किया कि 'सत्य' को पहचानने का प्रयत्न करो, जो भीतर वास करता है । इन्द्रियों के अतिक्रमण पर उनका आग्रह है : मैमंता मन मारि रे, नान्हां करि करि पीस । अहंकार मानव व्यक्तित्व का शत्रु है, उसे मिटाना ही होगा, जिसका आग्रह सूफियों ने भी किया । माया में मध्यकालीन समय-समाज की विकृतियाँ सम्मिलित हैं, जिन्हें पारकर कबीर ने एक वैकल्पिक मूल्य-संसार का संकेत किया : चुवत अमीरस भरत ताल जहँ, शब्द उठे असमानी हो अथवा गगन गरजै तहाँ सदा पावस झरै, होत झनकार नित बजत तूरा । यह है मानव मूल्यों का उच्चतम
धरातल ।
भक्तिकाव्य के प्रवृत्ति - दर्शन का संश्लिष्ट रूप है, जिसमें कर्म प्रधान हैमूल्य - समन्वित कर्म : कर्मप्रधान बिस्व रचि राखा । आग्रह मूल्य-भरे सामाजिक कर्म पर है, जिससे जीवन को सार्थकता मिलती है और समाज-संस्कृति का इतिहास भी इसी से अग्रसर होता है पर भक्तिकाव्य ने इसे केवल कहकर नहीं छोड़ दिया, क्योंकि वह उपदेश वृत्ति होती, उन्होंने इसे प्रमाणित किया, चरितार्थता दी । कबीर जुलाहा का काम करते हैं : जोलहा बीनहु हो हरिनामा, जाके सुर नर मुनि धरे ध्याना । जायसी ने जिस मुहावरे का उपयोग किया, उससे पता चलता है कि खेती-किसानी में लगे रहे होंगे। सूर भी कीर्तन-भजन - गायन से नया परिवेश बनाने का प्रयत्न करते हैं ।
भक्तिकाव्य का समाजदर्शन / 221