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में देखते हैं जिसे वे कवि का 'विज़न' कहते हैं। उनके शब्द हैं : 'एक जबर्दस्त करुणा उन्हें आप्लावित करती है । इस करुणा की व्यथा जायसी के लिए इतनी भारी है कि उनके पास चुनौती और प्रतिरोध की फुर्सत नहीं है' ( जायसी, पृ. 63) । कविता सही संवेदन धरातल निर्मित करने का मानवीय प्रयत्न है ताकि मनुष्यता बनी रहे ।
भक्तिकाव्य अवरोधों को पार करता है और कई बंधन अस्वीकार कर देता है । कहा जा सकता है कि व्यापक अर्थ में भक्ति एक जाति-वर्णहीन व्यवस्था है, अपने समय का विकल्प, जो आगे के लिए भी राह दिखाती है। कहा गया कि जाति-पाँत पूछै नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई । प्रमुख जातियों का तनाव कम करने के लिए कबीर - जायसी भिन्न मार्गों से होते हुए, सांस्कृतिक सौमनस्य के एक ही गंतव्य पर पहुँचते हैं। कबीर में आक्रोश है, जो उनके प्रखर ईमान की उपज है और जिसके मूल में गहरी मूल्य - चिंताएँ हैं । उन्होंने मूलभूत प्रश्नों पर विचार किया कि यदि सब एक ही विधाता की निर्मिति हैं, तो फिर संघर्ष कैसा ? दोनों सही मार्ग पर नहीं हैं : अरे इन दोहुन राह न पाई; हिंदू-तुरुक हटा नहिं मानैं, स्वाद सबन्हि को मीठा; जाति न पूछो साध की, पूछि लीजिए ज्ञान । कबीर की गहन अनुभूतियाँ लोकसंपृक्ति के साथ जो काव्यसंसार रचाती हैं, उन तक सामान्यजन की पहुँच है, इसलिए वे उनके प्रिय कवि हैं। एक ओर कबीर का आक्रोश है, दूसरी ओर उनका जाति-वर्णहीन वैकल्पिक संसार, जिन दोनों से मिलकर समग्र रचना - वृत्त पूरा होता है। उन्होंने जिस मूल्य - जगत् को परिकल्पित किया, उसमें निहित करुणाभाव की ओर प्रायः हमारा ध्यान नहीं जाता, पर कवि की आकुलता का यही मूल प्रस्थान, विकसित होकर मूल्य - जगत् में पर्यवसित होता है। जिसे 'बिरह कौ अंग' अथवा आध्यात्मिक वियोग कहा गया, उसे प्रश्न के स्थायी समाधान रूप में भी देखा जाना चाहिए । चकवा - चकवी के माध्यम से इसे व्यक्त किया गया है : 'रजनी आवत देखि कै चकई दीन्हीं रोइ, चल चकवे वा देस में रैन कदे ना होइ ।' ऐसा मूल्य-संसार जहाँ क्षुद्रताएँ नहीं होतीं, परम जागरण लोक होता है। जिन तुलसी को वर्णाश्रम व्यवस्था और उच्च जातियों के समर्थक रूप में देखा जाता है, वे मस्जिद में सोने की बात करते हैं और कहते हैं : जाति-पाँति, धन-धरम बड़ाई, सब तजि तुम्हहिं रहहु लौं लाई । जाति-वर्ण के विकल्प रूप में निष्काम भक्ति की प्रतिष्ठा भक्तिकाव्य की क्रांतिकारी परिकल्पना है। कम रचना-आंदोलन ऐसे होते हैं, जो अपने समय से मुठभेड़ करते हुए, विकल्प की खोज का साहस कर सकें और अपनी सदाशयता से भक्तकवियों ने इसे पूर्ण किया । जायसी ने जिसे प्रेम-भाव के रूप में देखा कबीर का वही ज्ञान मार्ग है, पर दोनों समभावी लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं । कवियों ने रचना का वैचारिक आधार निर्मित किया, और उसे काव्य के संवेदन-जगत् में अंतर्भुक्त किया। मराठी संतों ने, गुरु नानक ने बार-बार कहा कि भक्ति की जातिहीन व्यवस्था में सबका प्रवेश है। तर्क वही है कि सबका स्रष्टा विधाता है, इसलिए पार्थक्य की रेखाएँ समाप्त होनी
भक्तिकाव्य का समाजदर्शन / 219