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तुलसी ने तो अपने जीवनकाल में ही शब्द को वाचिक परंपरा से जोड़ा, रामलीला आदि की व्यवस्था की। अपने विनय भाव में वे रामभक्ति के अतिरिक्त और कुछ इसलिए नहीं चाहते क्योंकि राम कर्मवान मूल्य-गुण-समुच्चय हैं, उनकी प्रेरणा से सही कर्म-पथ पर अग्रसर हुआ जा सकता है : 'विनयपत्रिका दीन की, बापु आप ही बाँचो, हिए हेरि तुलसी लिखी, सो सुभाय सही करि, बहुरि पूँछिए पाँचो।' मीरा ने राजकुल का परित्याग किया, जो सामंती समय का परजीवी समाज है और उन्हें चिंता नहीं कि टिप्पणी की जाती है : संतन ढिग बैठि-बैठि लोक लाज खोई। जिसे कई बार लोक-लाज कहा जाता है, वह इस दृष्टि से सही मार्ग पर चलने में बाधक भी कि वहाँ प्रतिवाद के लिए अवसर ही नहीं है, जबकि भक्तिकाव्य विवेकी प्रतिपक्ष है-विचार-संवेदन की मैत्री पर आधारित । भक्तिकाव्य का प्रवृत्ति-दर्शन समाजदर्शन का प्रमुख उपादान है, जो कर्मभरे जीवन का आग्रह करता है और जिसे अनेक प्रकार से परिभाषित किया गया है। स्वयं कवियों ने भी इसे जिया है, अपने कर्म निष्पादित करते हुए, उच्चतर मूल्यों की परिकल्पना से। रैदास चर्मकार का कार्य करते हुए भक्ति-भाव का प्रतिपादन कर सकते हैं : तुम चंदन हम इंरड बापुरे संगि तुमारे बासा, नीच रूप ते ऊँच भए हैं, गंध सुगंध निवासा। राजा रत्नसेन के व्यक्तित्व में दीप्ति तब आती है, जब वह प्रेम और युद्ध दोनों में साहस का परिचय देता है; प्रेमपंथ पर चलने का निर्णय लेता है, तो सबके समझाने-बुझाने के बाद भी अडिग है। प्रेम के लिए वह राज-पाट को तिलांजलि दे देता है, तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह दायित्व से पलायन कर रहा है, इसकी व्यंजना यह भी कि भोग-विलास जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। यह रूमानी प्रेम नहीं है, इस निष्ठा की परिणति उदात्त भक्ति-भाव में होती है : मरन जियन उर रहै न हिए (पद्मावती-रत्नसेन भेंट खंड)। इसकी चर्चा विस्तार से हो चुकी है कि राम-कृष्ण और उनसे संबद्ध चरित्रों का सौंदर्य उनके सामाजिक मूल्य कर्म में है। यदि आचार्य शुक्ल गोपियों से पूर्ण संतुष्ट नहीं हैं तो संभवतः इसलिए भी कि उनकी भावनामयता में कर्म-संसार छिप गया है। मुक्तिबोध इसे 'भावावेश व्यक्तिवाद' कहते हैं। पर रागात्मक समर्पण से वे इसकी क्षति-पूर्ति करती हैं, गोपी-भाव बनती हैं, उन्हें सामाजिक स्वीकृति भी मिलती है : गोपी, ग्वाल, गाय, गोसुत सब मलिनबदन कृसगात। स्वयं प्रगतिवादी चिंतन स्वीकारता है कि कृष्णकाव्य अधिक 'सेक्युलर' है, उसे हर वर्ग की मान्यता मिली।
जहाँ धर्म की उपस्थिति होती है, वहाँ आध्यात्मिकता, रहस्यवाद आदि के प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठते हैं। कबीर जैसे क्रांतिकारी को भी रहस्यवादी सीमाओं में बांधने का प्रयत्न किया गया और जायसी की लोकसंपृक्ति के साथ भी यही हुआ। धर्म की रसात्मक अनुभूति यदि भक्ति है तो रचना में भक्ति का निरूपण, उसका मानवीय पक्ष है। यह मानवीयता गहरे असंतोष से उपजती है और कर्म-पथ से होती हुई, उच्चतर मूल्यों तक जाती है। जब उदात्त उदार मानवीयता ही उच्चतम धरातल
222 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन