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रचना में बार-बार उनकी आवृत्ति बदल-बदल कर होती है। एक वैचारिक जगत् है, जहाँ कवि दार्शनिक-विचारक की भाँति चिंता व्यक्त करता है और सामाजिक चेतना से संपन्न वक्तव्य देता है। पर वे वक्तयों की सीमा से भी परिचित हैं, इसलिए उन्होंने वैकल्पिक मूल्यसंसार को चरित्रों के माध्यम से आचरण स्तर पर प्रमाणित करने का कार्य किया। सामान्यजन चरित्रों को प्रतीक रूप स्वीकारते हैं और उन्हें मूल्य-प्रतिनिधि के रूप में देखते हैं। ऐसी स्थिति में पात्र व्यक्तिगत संज्ञाएँ नहीं रह जाते, किन्हीं प्रवृत्तियों के संवाहक बनते हैं। तुलसी ने यह कार्य कौशल से किया, जैसे अयोध्याकांड के अंत में कहा गया कि भरत का जन्म न होता तो सुयश के बहाने दुख-सन्ताप-दारिद्र्य का हरण कौन करता : दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को। सीता सील व्रत प्रेम पुनीता हैं, जिनके रूप का वर्णन भी संभव नहीं, उन्हें 'महाछवि' कहा गया, जैसे राधा में 'परम गोपीभाव' की परिकल्पना की गई। तुलसी ने वैकल्पिक, मूल्य संसार को कवि के कल्पित स्वप्न अथवा विज़न के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया। रामचरितमानस के बालकांड (दोहा 121) में राम-जन्म के हेतु की चर्चा है : असुरि मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुतिसेतु, जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु। समाज में मूल्य-मर्यादाओं की स्थापना के लिए राम मनुष्य रूप में अवतरित होते हैं। यहाँ यह संकेत करना भी आवश्यक है कि देवता तो छली-कपटी कहे गए हैं जो राम की विजय के अवसरों पर आकाश से केवल प्रसून-वर्षा करना जानते हैं, जैसे कर्महीन जाति हो। 'कामायनी' के इड़ा सर्ग में देवता जाति को 'अपूर्ण अहंता' कहा गया है जो स्वयं को प्रवीण समझती है। तुलसी ने देवताओं को अच्छा प्रमाणपत्र नहीं दिया और सचाई तो यह है कि अपने स्वार्थ के लिए उन्होंने राम को संघर्ष में उतारा, स्वयं तटस्थ होकर आनन्द लेते रहे। इसकी चर्चा की जाएगी, फिलहाल इतना ही कहना पर्याप्त कि राम उन मूल्यों के प्रमुख वाहक हैं जिन्हें तुलसी मध्यकालीन कलिकाल के विकल्प रूप में प्रस्तुत करते हैं। राम के लिए जिन विरुदों का प्रयोग किया गया है, उनकी संख्या विपुल है पर प्रधानता है उनके 'करुणाभाव' की, दीन-दयालु से लेकर गरीबनेवाज तक। शिव, गणेश, दिनेश, धनेश, सुरेश, सुर, गौरि, गिरापति सबको छोड़कर तुलसी केवल राम का आश्रय चाहते हैं, क्योंकि राम पर उन्हें भरोसा है (कविता. उत्तर. 78)। इसी में एक पंक्ति में गरीबनेवाज की पुनरावृत्ति हुई है, जो शब्द मध्यकालीन शासकों के लिए प्रयुक्त होता था। तुलसी के गरीबनेवाज गुणसमन्वित राम हैं, जिनके दरबार में सबका प्रवेश है, यहाँ खास-आम का विभाजन नहीं है : राम गरीबनेवाज, भए हौ गरीबनेवाज गरीबनेवाजी (पद 95)। इसलिए तुलसी ने कहा : एकै दानि सिरोमनि साँचो।
तुलसी की रामराज्य परिकल्पना का उल्लेख प्रायः किया जाता है, जिसकी आदर्शवादी रेखाएँ हो सकती हैं 'यूटोपिया' तक। पर विचारणीय यह कि महाकवि ने वैकल्पिक मूल्य संसार परिकल्पित किया, साहस का परिचय दिया, समय की चुनौती
तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 203