Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 207
________________ भक्तिकाव्य का समाजदर्शन भक्तिकाव्य ने लंबा समय पार किया और उसके मुख्य वृत्त को यदि चौदहवीं शती से आरंभ करें तो सत्रहवीं शती के मध्यभाग तक उसका प्रसार है। पीठिका में सिद्ध-नाथ साहित्य मौजूद है, जिसके गुणात्मक विकास रूप में संत-भक्ति काव्य को प्रस्तुत किया जाता है। व्यापक भक्ति आंदोलन ने जो वैचारिक-दार्शनिक प्रयत्न किए, उसकी छाया भी यहाँ देखी जा सकती है, विशेषतया भक्ति-दर्शन की नियोजना में। भक्तिकाव्य के व्यापक प्रसार से ज्ञात होता है कि मध्यकालीन परिवेश ने पूरे देश को प्रभावित किया और भाषा की कठिनाई से, यद्यपि निकट पारस्परिक संवाद सरल नहीं था, पर क्षेत्रीय वैशिष्ट्य के बावजूद उनमें समान रेखाएँ भी खोजी जा सकती हैं। जिनका संपर्क शास्त्र से है, वे काव्य में उसकी व्याख्याएँ अपने ढंग से कर सकते हैं, पर एक ही स्रोत होने से कुछ समानताएँ भी हैं। यायावरी प्रवृत्ति से जो अनुभव-ज्ञान प्राप्त किया जाता है, वह लोक के प्रति एक ऐसी उदार व्यापक दृष्टि देता है कि कई जड़ताएँ टूटती हैं। मध्यकाल में देवस्थलों के माध्यम से भी एक संपर्क था और इन सबके ऊपर एक समीपी सांस्कृतिक संवाद था जिसने भक्तिकाव्य को नई सर्जनात्मक ऊर्जा से संपन्न किया। एक कठिन समय में सार्थक रचना कैसे संभव हो सकती है, इसे भक्तिकाव्य ने प्रमाणित किया और साहित्य के इतिहास में इतनी लंबी आयु के रचना-आंदोलन सरलता से नहीं मिलते। पार्थक्य के बावजूद भारतीय भक्तिकाव्य का एक समवेत स्वर भी है जिस ओर समाजशास्त्रियों का ध्यान गया। डी.पी. मुकर्जी ने स्वीकार किया है कि 'मध्यकालीन संतों का भारतीय संस्कृति के क्षेत्र में सर्वाधिक अवदान साहित्य के क्षेत्र में है। उन्होंने प्रादेशिक भाषाओं में सामान्यजन को संबोधित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया' (सोशियालॉजी ऑफ़ इंडियन कल्चर, पृ. 19)। सीमाओं का उल्लेख करते हुए भी के. दामोदरन भक्ति आंदोलन और भक्तिकाव्य की ऐतिहासिक भूमिका स्वीकारते हैं : 'इस प्रकार मध्ययुग के इस महान् आंदोलन ने न केवल विभिन्न भाषाओं और विभिन्न धर्मों वाले जनसमुदायों 212 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन

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