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पुरोहितवाद - कर्मकांड-परिचालित धर्म-व्यवस्था थी, जहाँ अंधविश्वास फल-फूल रहे थे । निराकार-निर्गुण परिकल्पना से भक्तिकाव्य विवेक, ज्ञान, शुद्ध आचरण, सात्त्विक प्रेम मूल्य-भरे कर्म का आग्रह करता है, जो परंपरा मराठी संत नामदेव, विद्रोही कबीर से होती हुई गुरु नानक तक चली आती है। नानक ने जातिवाद को नकारते हुए सामान्यजन को अपनाया : नीचा अन्दरि नीच जाति नीची हूँ अति नीच, नानकु तिन कैसंग साथि बढ़िया सिऊ किया रीस । नानक को तो व्यापक अर्थ में समाजवादी तक कहा गया (गुरु नानक, पृ. 135 ) ।
साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण के दार्शनिक - वैचारिक विवाद हैं, पर जहाँ तक भक्तिकाव्य में उनके प्रवेश का प्रश्न है, दोनों का ऐसा विभाजन उचित नहीं, जहाँ उनमें संपर्क ही न हो सके। निराकारी कल्पना कर्मकांड का विकल्प ज्ञान के स्तर पर खोजती हुई, कबीर जैसे कवियों की वाणी में अधिक आक्रामक है और व्यंग्य को माध्यम रूप में अपनाती है, पर यह भी सत्य है कि नकार की यह भंगिमा भी प्रेम-भक्ति मार्ग की ओर अग्रसर होती है। कबीर - तुलसी के राम में अंतर है और सूर तथा तुकाराम के बिठोवा कृष्ण भी एक नहीं हैं, पर गंतव्य में यह दूरी पटती दिखाई देती है | मराठी संतकाव्य में सगुण-निर्गुण का वह द्वैत नहीं, जिसके लिए हिन्दी भक्तिकाव्य में कई विवाद उपजे हैं । यहाँ तक टिप्पणी की गई कि निर्गुण अधिक प्रगतिशील है और उसने सामान्य वर्ग को अपनी ओर आकृष्ट किया : कबीर, नामदेव, रैदास, धर्मदास, सेना, दादू आदि। यह भी कहा जाता है कि कृष्णकाव्य अधिक उदारपंथी 'सेक्युलर' है और रामकाव्य उच्च वर्ण का संरक्षक । रहीम-रसखान आदि के उदाहरण भी इस संदर्भ में दिए जाते हैं । मुक्तिबोध ने मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन पर संक्षिप्त टिप्पणी करते हुए प्रश्न उठाया कि कबीर और निर्गुण पंथ के 'अन्य कवि तथा कुछ महाराष्ट्रीय तुलसीदास की अपेक्षा अधिक आधुनिक क्यों लगते हैं ( नई कविता का आत्मसंघर्ष, पृ. 86 ) । इसका एक कारण यह भी कि निर्गुण में यथार्थ अधिक मुखर है और उसकी दो टूक वाणी तीव्रता से उद्वेलित करती है । सगुण काव्य संभवतः परंपरा से पूरी तरह मुक्त न हो सका, इसलिए उसके कुछ वाक्यांशों को लेकर अनुदार टिप्पणियाँ की जाती रही हैं, जैसे वर्ण-व्यवस्था का पालन । पर इन कवियों को यह एहसास भी है कि ज्ञानमार्ग सामान्यजन के लिए नहीं है, वह पंडितवर्ग के लिए है। सूर ने कहा : रूप-रेख - गुन-जाति- जुगति बिनु निरालंब कित धावै, सब बिधि अगम बिचारहिं तातैं सूर सगुन पद गावै । इसलिए राम-कृष्ण का आश्रय लिया गया ताकि चित्त स्थिर - केंद्रित हो सके, एकाग्र हो सके ।
भक्तिकाव्य की सामाजिक चेतना और समाजदर्शन की सही समझ के लिए. जातिगत विभाजन से थोड़ा हटकर देखना होगा । इतिहास की इस सचाई की ओर ध्यान दें कि निहित स्वार्थों के वर्ग किसी जनांदोलन और वैचारिक क्रांति के आने पर पूरी तरह ध्वस्त नहीं हो जाते। वे कुछ समय के लिए डुबकी मार लेते हैं, चुप्पी
214 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन