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की एक सुसंबद्ध भारतीय संस्कृति के विकास में मदद की बल्कि सामंती दमन और उत्पीड़न के विरुद्ध संयुक्त संघर्ष चलाने का मार्ग भी प्रशस्त किया' (भारतीय चिंतन परंपरा, पृ. 327)। भक्ति आंदोलन एक प्रकार से ऐतिहासिक अनिवार्यता की उपज था, जिसकी वैचारिक-संवेदनात्मक अभिव्यक्ति भारतीय भक्तिकाव्य में होती है और जिसका व्यापक स्वर प्रमाणित करता है कि सही रचना अपने समय से टकराने-अग्रसर होने का संकल्प भी है।
भक्तिकाव्य के संदर्भ में जिस समाजशास्त्र और समाजदर्शन का उल्लेख किया जाता है, उसकी प्रक्रिया संश्लिष्ट है, इस अर्थ में कि उसकी पहचान के लिए किसी सरलीकरण का सहारा लेना उचित नहीं होगा। शास्त्र-पांडित्य पहले भी मौजूद थे और भाष्य-व्याख्या का टीका दौर भी चल ही रहा था, पर भक्तकवियों ने इस घेरे को तोड़ा। उन्हें अवसर था कि वे पंडिताई बघार सकते थे, एक बौद्धिक आतंक जैसा, पर उनका संवेदन कहीं अधिक जागरूक था। इस दृष्टि से भक्तिकाव्य सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से परिचालित है और उसे 'संबोधन का काव्य' कहा जा सकता है। शास्त्र-पांडित्य की जकड़बंदी तोड़कर ही, रचना वृहत्तर संवेदन-जगत् में पहुँचती है, इसीलिए बल ‘अनुभव-ज्ञान' पर है। जिसे आँखें देखती हैं, उसे झुठलाना सरल नहीं, पर भक्तिकाव्य का आग्रह व्यापक जीवनानुभव पर है, जिससे मध्यकालीन समय-समाज उसमें बिंबित होते हैं। सामंती परिवेश के दबाव झेलती रचनाशीलता, उसे गहरे स्तर पर महसूस करती है और विवरण-वृत्तांत के संकेतों से आगे जाकर नैतिक चिंताओं से उलझती है। रचना की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया उसे सार्थकता देती है, इसे समझना होगा। समय-समाज से विचार-संवेदन स्तर पर टकराना रचना का प्रस्थान है, पर सही जीवन-दृष्टि के सहारे एक वैकल्पिक जगत् का संकेत कर सकने की क्षमता उसकी अभीप्सा है। सब कुछ अदम्य ऊर्जा तथा सर्जनात्मक कल्पना के सहारे कलाकृति के रूप में प्रस्तुत कर सकने की अनिवार्यता तो है ही। भक्तिकाव्य के संदर्भ में जब लोकधर्म, लोकवाद, मानववाद आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है, तब विचारणीय प्रश्न यह कि पुरागाथा के रूप में प्रचलित सामग्री को कवियों ने रचना में अंतर्भुक्त कैसे किया। देवत्व अगोचर है और कालांतर में अवधारणाएँ इतनी लड़खड़ा जाती हैं कि निहित स्वार्थों को दुरुपयोग की सुविधा मिल जाती है। इस स्थिति से सजग कवि परिचित थे क्योंकि वे सामाजिक-सांस्कृतिक सदाशयता से परिचालित थे, मात्र कवि नहीं थे। इसी अर्थ में भक्तिकाव्य के सांस्कृतिक पक्ष, समाजशास्त्र-समाजदर्शन का उल्लेख किया जाता है। परिवेश को देखते हुए, क्या यह कम साहस नहीं कि भक्तिकाव्य ने निराकार-निर्गुण का आग्रह किया, जहाँ बल 'ज्ञान' पर है। अगोचर है, तो फिर धर्म-संप्रदाय-जाति की टकराहट कैसी ? सब उसे पूज सकते हैं, शुद्ध आचरण द्वारा । निराकारी परिकल्पना भक्तिकाव्य में केवल वैचारिक प्रयत्न नहीं है, वह उस स्वार्थी व्यूह को छिन्न-भिन्न करने का उप्रकम भी है, जिसमें
भक्तिकाव्य का समाजदर्शन / 213