Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 211
________________ : हम न मरैं, मरिहै संसारा । जायसी की, अपने प्रेम-पंथ में आस्था है और वे स्वयं को 'मुहमद कबि जो प्रेम का' कवि कहते हैं : जेइँ मुख देखा तेइँ हँसा, सुना तो आए आँसु । सूर की आस्था गोपियों के माध्यम से भी व्यक्त होती है, जिसे उद्धव तक सराहते हैं : हृदय तें नहिं टरत उनके, स्याम राम समेत । मीरा मध्यकाल में नारी मुक्ति का काव्य रचती हैं : मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई । तुलसी विनयभाव के साथ हिन्दी के सबसे विश्वासी कवियों में हैं, जो परंपरा निराला तक देखी जा सकती है जो स्वयं को 'वसंत का अग्रदूत' कहते हैं : ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत । रचना का आत्मविश्वास अभिव्यक्ति - कौशल से नहीं, मूल्य - जगत् से निर्मित होता है और रचना की अवधारणाएँ व्यापक जीवन की उपज होती हैं । इसलिए भक्त कवियों ने देवत्व के स्थान पर मनुष्य को केंद्रीयता दी । चंडीदास ने घोषणा की : सुनहु मानुष भाइ, शबार उपरे मानुष सत्य, ताहार ऊपर नाई । मनुष्य सर्वोपरि है, तुलसी के शब्दों में 'बड़े भाग मानुष तन पावा ।' आधुनिक समय में कबीर से प्रभावित होकर रवीन्द्र ने सौ कविताओं का अनुवाद किया, 'मानुषेर धर्म' पुस्तक लिखी और 'गीतांजलि' में मानव-धर्म की प्रतिष्ठा की : मंदिर में तू किसकी पूजा-अर्चना कर रहा है ? ईश्वर वहाँ है जहाँ श्रम है - कठोर, ज़मीन में हल चलाता किसान, पत्थर तोड़ते मज़दूर । भक्तिकाव्य में देवत्व का मानुष रूप में अवतरण प्राचीन परंपरा से प्रेरणा लेता है, पर एक अंतर है। यहाँ देवत्व अपने समय की भूमि पर खोजा - पाया गया है, एक सार्थक विकल्प बनता । यह सप्रयोजन है क्योंकि भक्तिकाव्य जानता है कि देव के पृथ्वी पर अवतरण से वे विश्वसनीय बनते हैं और अगोचर की ओट में प्रचलित कर्मकांडी व्यवसाय टूटता है । कुछ अतिलौकिक प्रसंगों को छोड़ दें, जो लोकविश्वास के अंतर्गत आते हैं, तो शेष क्रियाकलापों में लीला - संसार के बावजूद देवत्व मानुषीकृत है, सामान्यजन से संवाद स्थापित करता हुआ । दशावतारों की परंपरा थी, पर इस संख्या में निरंतर वृद्धि होती गई, इससे भक्तिकाव्य अपनी असहमति व्यक्त करता है । शैव-वैष्णव की टकराहट से भी वह बचना चाहता है, जिसमें तर्क-कुतर्क की भूमिका अधिक है, सदाशयता की कम । इसलिए भक्तिकाव्य की अद्वैतवादी - एकेश्वरवादी दृष्टि देवत्व को मनुष्य रूप में संचरित करती है और इस प्रक्रिया में वह उस सजग सामाजिक चेतना से संपन्न है जिसे लोकधर्म- मानवधर्म कहा गया । देवत्व के स्थान पर मनुष्य की केंद्रीयता भक्तिकाव्य का सबसे महत्त्वपूर्ण विकल्प है, जिसे कवियों ने अपनी दृष्टि से रूपायित किया । कबीर को कथा की सुविधा नहीं थी और न साकारी देवत्व की, पर उन्होंने स्वयं को समर्पण के प्रेम भाव से भी संबद्ध किया, 'राम की बहुरिया ' कहा, यहाँ तक कि मुतियाँ कूंतां भी। जायसी ने पारसमणि पद्मावती की परिकल्पना की : भा पावन तिन पायन परसे, जिसके स्पर्श से चेतना का रूपान्तरण होता है। कृष्ण का सोलह कलावतार रूप राग-रंग से ऐसा संपन्न कि उससे मध्यकाल का 1 216 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन

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