Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 204
________________ रूप में। वर्ण व्यवस्था के टूटने पर कवि की चिंता का कारण यह नहीं कि जन्मना जाति-व्यवस्था बनी रहे, उनका आशय यह भी हो सकता है कि लोग अपने दायित्व के प्रति सचेत हों । तुलसी के लोकधर्म में लोक सर्वोपरि है, जिसके लिए आचार्य हजारीप्रसाद ने कहा कि मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है। तुलसी का विवेचन करते हुए उन्होंने लोक शब्द का प्रयोग किया है : 'तुलसीदास को जो अभूतपूर्व सफलता मिली, उसका कारण यह था कि वे समन्वय की विशाल बुद्धि लेकर उत्पन्न हुए थे । भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय करने का अपार धैर्य लेकर आया हो' (हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास, पृ. 141 ) । पर यह समन्वय कोई समझौतावाद नहीं, उदार दृष्टि का बोधक है । इस समन्वय को कल्पकवि की सारग्राहिणी दृष्टि के रूप में देखा गया है, पर सबके बीच से गुजरते हुए, तुलसी : लोकदृष्टि का निर्माण किया । राम धर्मधुरीण काव्यनायक हैं, पर मानस के उत्तरकांड में वे कहते हैं कि जो उचित समझते हो करो और जो अनीति कछु भाखौं भाई, तो मोहि बरहु भय बिसराई । राम के व्यक्तित्व का जनतांत्रीकरण मध्यकालीन निरंकुशता का विकल्प है, जहाँ वे भय का नहीं, श्रद्धा का संचार करते हैं, अपने सुकर्मवान व्यक्तित्व से । तुलसी सदाशयता के कवि हैं, पर वे ऐसे सुधारवाद तक सीमित नहीं हैं, जहाँ सब कुछ हृदय परिवर्तन के सहारे छोड़ दिया जाय। राम बार-बार चेतावनी देते हैं, पर वे अंतिम संघर्ष के लिए भी प्रस्तुत हैं । मानववाद, लोकवाद, लोकधर्म कोरे शब्द नहीं हैं, जिन्हें उच्चरित कर दिया जाय, इन्हें आचरण से प्रमाणित करना होता है। इस अर्थ में तुलसी की लोकवादिता का क्षेत्र व्यापक है जो उन्हें कालजयी कवियों में स्थान दिलाता है । जिस देश में तुलसी जन्मे उसके प्रति उनका राग-भाव अब भी अनुकरणीय है, पूरा जीवन जैसे उनकी रचनाओं में समाया हुआ । पाब्लो नेरूदा ने ज़ोर देकर कहा है कि महान् कविता अपने विन्यास में देशज होती है, उसकी अर्थध्वनियाँ व्यापक | तुलसी ने जिस लोकधर्मिता का आग्रह किया, उसमें समता का भाव भी है और इसके लिए वे भक्ति का एक नया विन्यास करते हैं । तुलसी के लिए भक्ति - चिंतन, समाजर्दशन आदि उनके व्यापक लोकधर्म के ही अंग हैं, जिसे आधुनिक भाषा में मानववाद कहा जाता है । पर सब कुछ घटित होता है, राम को केंद्र में रखकर, जो पुरुषोत्तम हैं, कर्म का सौंदर्य रचाते । प्रायः लोकधर्म को जीवन - यथार्थ अथवा कवि की लोकचिंता तक सीमित कर दिया जाता है, पर तुलसी की अपनी सौंदर्य-दृष्टि है । वे सौंदर्य के नए लोक के स्रष्टा हैं, जो देहवाद को अक्रमित करता हुआ, गुण-केंद्रित है। सौंदर्य के लिए छबि - महाछबि, रूप- अपरूप, बिमल-निर्मल, ज्योति - प्रकाश, मृदु-मंजुल, मंगल- कल्याण, शोभा - सुषुमा आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। उनके लिए सौंदर्य वही है, जो मंगलकारी है, शेष व्यर्थ । राम के लिए बार-बार मंगल शब्द का प्रयोग हुआ है : मंगल भवन अमंगल हारी, उमा सहित जेहि तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 209

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