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सर्जनात्मक धरातल पर रचना में अंतर्भुक्त करते हैं। इसलिए खंड-खंड पंक्तियों के आधार पर उन्हें किसी संप्रदाय से बाँधा नहीं जा सकता। वे स्वयं एकाधिक बार इसका निषेध कर चुके हैं, इसे कुतर्क कहा है, हठ भी। उनका आग्रह 'विमल विवेक' पर है, जिससे प्रेम उपजता है और भक्ति की ओर अग्रसर होता है। भक्ति-विवेचन की सुदीर्घ परंपरा है, जिसके लिए विद्वानों ने श्रम किया है, नारदीय भक्तिसूत्र, भागवत से लेकर वैष्णवाचार्यों तक । रूपगोस्वामी ने 'हरिभक्तिरसामृतसिंधु' तथा 'उज्ज्वलनीलमणि' में भक्तिरस के प्रतिपादन का प्रयत्न किया। पर मूलतः वह शांत रस के अंतर्गत ही परिगणित होता रहा है, जिसका स्थायी भाव निर्वेद है (अभिनवगुप्त)। तुलसी का सामाजिक-सांस्कृतिक प्रयोजन भी है, इसे ध्यान में रखना होगा। वे अपने समय के विकारों से खिन्न हैं और नयी विचारभूमि खोजते हैं। पर सजग विचारक के रूप में वे यह भी जानते हैं कि केवल दार्शनिक चर्चा से प्रश्नों के संपूर्ण उत्तर नहीं मिलते, समस्या का समाधान नहीं होता। बड़ा प्रश्न स्थितियों के बदलाव और सामाजिक रूपांतरण का है, जिसके लिए वे राम का चयन करते हैं। डॉ. उदयभानुसिंह का कथन है कि ''विनयपत्रिका' भक्तिरस का उत्स है और रामचरितमानस का मुख्य प्रतिपाद्य रस भक्तिरस ही है' (तुलसी-दर्शन मीमांसा, पृ. 385)। शास्त्रीय वाद-विवाद हमारा विषय नहीं है, पर तुलसी के भक्तिचिंतन के मूल में जो सामाजिक-सांस्कृतिक आशय हैं, उस ओर भी दृष्टि जानी चाहिए। समाज में जो मत-मतांतर व्याप्त थे, उनके बीच से तुलसी ने उदार भक्ति का मार्ग तलाशा और इसे उच्चतर मानव-मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित किया। भक्ति उनके लिए वैराग्य से पृथक्, एक ऐसा कर्मवान मार्ग है, जिसे कोई भी निष्ठावान अपना सकता है, सामाजिक आचरण से चरितार्थ करता।
तुलसी वैचारिक स्तर पर विकल्प की खोज करते हैं, यह उनका उल्लेखनीय पक्ष है, यद्यपि प्रश्न किया जा सकता है कि समस्या का समाधान किसी कवि से अपेक्षित है क्या ? रचना अपने समय से टकराती है, जिसे तुलसी ने कलिकाल कहा-मध्यकाल का यथार्थ, पर उनके सामने भी समस्या है कि आखिर इसे पार कैसे किया जाय। इसके लिए उन्होंने उदात्त पात्रों की सृष्टि की और शरीर केंद्रित राक्षसी सभ्यता से उनके संघर्ष का भी चित्रण किया। इस प्रकार का देव-दानव, पुण्य-पाप विभाजन कठिन है, पर तुलसी जिस समय-समाज से जूझ रहे थे, उसमें किसी अंश तक यह संभव था। तुलसी दूरदृष्टि के कवि हैं, कई बार भविष्यद्रष्टा, भविष्यवक्ता भी, इसलिए उनकी कवि कल्पना में एक विराट 'विज़न' है, जिसके लिए महान् कवियों का स्मरण किया जाता है। रामचरितमानस के समापन दोहों पर ध्यान दें, जहाँ मध्यकाल के विगलित मूल्यों पर टिप्पणी है : शरीर पर जीते हुए काम-वासना के व्यक्ति हैं जिनके लिए नारी केवल देह है अथवा लोभीजन हैं जिनकी इच्छाएँ अर्थ-केंद्रित हैं। तुलसी दोनों का निषेध करते हुए कहते हैं कि मेरी अभीप्सा राम की है, जो गुणसमन्वित उच्चतम आदर्श हैं। साधारण प्रसंग में कामी, लोभी
तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 201