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बड़ाई, नाक पिनाकहि संग सिधाई । सारी वीरता धनुष के साथ बिला गई, अब तो एक ही मार्ग है कि यथार्थ को स्वीकारो और : देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मद मोह । तुलसी के समक्ष वृहत्तर उदार समाज और अल्पमत के दुष्ट आमने-सामने प्रस्तुत हैं । तुलसी हर ऐसे अवसर का उपयोग करना चाहते हैं, जहाँ सामान्यजन की प्रतिक्रियाओं से दृश्य और स्पष्ट होता है । हनुमान द्वारा लंका दहन एक ऐसा ही प्रसंग है, जिसमें पहले मनोरंजन है : कौतुक कहँ आए पुरवासी, मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी । पर जब लंका भस्म होने लगती है तो दृश्य बदल जाता है : तात मातु हाँ सुनिअ पुकारा, एहिं अवसर को हमहि उबारा । कवितावली में लंकावासियों की इस विकलता का वर्णन विस्तार से आया है और जनता की प्रतिक्रिया है कि यह तो राम दूत का कमाल है, स्वामी को तो अभी आना है : 'तुलसी सयाने जातुधान पछिताने कहैं, जाको ऐसो दूत सो तो साहेबु अबै आबनो' (सुंदरकांड)। तुलसी जनसमूह की उपस्थिति से राम - कथा को जो सामाजिकता देते हैं, वह उनके समाजदर्शन का महत्त्वपूर्ण अंग है । इसी के साथ लोकप्रचलित अनेक उपादान हैं, जिन्हें प्रायः वर्णन के रूप में प्रस्तुत किया गया है- बारात, जेवनार आदि जिसके लिए जायसी का भी स्मरण किया जाता है | लोक तुलसी की चेतना में ऐसा व्याप्त है कि वे विचार-संवेदन, दृश्य-विधान से लेकर कला - संसार तक में उसे अभिव्यक्ति देते हैं । उल्लेखनीय यह कि इस लोक में प्रकृति सहभागिनी है और इसके जितने चित्र तुलसी ने उरेहे हैं, उतने अन्यत्र कठिनाई से मिलेंगे। चित्रकूट की छवि सघन दृश्य के रूप में गीतावली में कई पदों में आई है, जिससे कवि का, प्रकृति के प्रति राग-भाव का प्रमाण मिलता है : सब दिन चित्रकूट नीको लागत, बरषा ऋतु प्रबेस बिसेष गिरि, देखत मन अनुरागत (अयोध्याकांड) |
तुलसी ने अपने समय के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर बौद्धिक ढंग से विचार का प्रयत्न भी किया है और उन्हें संवेदन- धारा में संयोजित कर काव्य-संपत्ति बनाया है। समय-समाज के अतिरिक्त सगुण-निर्गुण, ज्ञान- भक्ति, संत- असंत, धर्म-नीति, जीव-ब्रह्म आदि ऐसे कई प्रश्न हैं जिन पर तुलसी ने सोचा- विचारा है और जिससे समाजदर्शन का उनका वृत्त पूरा होता है। उन्हें दर्शन - विचार की श्रेणियों में विभाजित करने का प्रयत्न भी किया गया है, पर विचारणीय पक्ष यह कि तुलसी मूलतः कवि हैं, जिन्हें संत भक्त कोई भी विशेषण दे दिया जाय, किंतु वे प्रवचनकर्त्ता उपदेशक नहीं हैं । काव्य की संपन्नता यही कि सब कुछ वृहतर संवेदन- जगत् में विलयित हो जाय, पृथक से आरोपित न हो। इसी संदर्भ में कविता के संदर्भ में दर्शन- विचारधारा आदि के प्रश्न उठाए जाते हैं । जिसे काव्य-सत्य कहा जाता है, वह कोरा भाववाद नहीं है, उसमें विचार सन्निहित हैं, पर संवेदन का अंश बनकर । रामचरितमानस में तुलसी ने शंका-समाधान के लिए पात्रों का उपयोग किया है और ऐसे भी अवसर हैं जब तात्त्विक विवेचन वर्णनात्मक ढंग से हुआ है, दर्शन को निरूपित करता । पर
196 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन