Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 190
________________ तुलसी को राम वनगमन का यह प्रसंग प्रिय है, जैसे अंतःप्रेरणा से जन्मा हो और वह उन्हें भीतर से उद्वेलित करता है, जैसे वे स्वयं सामान्यजन की प्रतिक्रियाओं में सम्मिलित हैं । कवितावली, गीतावली में गीतात्मकता के लिए अवसर है और तुलसी इस स्नेहपूर्ण प्रसंग का पूरा उपयोग करते हैं । कवितावली में ग्राम समाज आपस में बातचीत करता है कि ऐसा सौंदर्य जैसे इन्हें निहार कर नेत्र सार्थक होते हैं । ग्राम-वधुएँ एक-दूसरे से बतियाते हुए अपनी भावना व्यक्त करती हैं : मगजोगु न कोमल क्यों चलिहै, सकुचाति मही पदपंकज छ्वै । कोमल बनिता सीता, जिनके चरण-कमल के स्पर्श से पृथ्वी भी संकुचित है । एक कारण संभवतः यह भी कि सीता 'पृथ्वी - तनया' (निराला) हैं, अपनी बेटी को इस रूप में देखकर उदास है। ग्राम वधुओं को तब तक राम वनवास का कारण भी ज्ञात हो गया है। वे कैकेयी को कोसती हैं : पबि पानहू तें कठोर हियो है और कहती हैं राजा (दशरथ) ने यह ठीक नहीं किया आँखिन में सखि राखिबै जोगु, इन्हें किमि कै बनबासु दियो है । सीता से उनका सहज प्रश्न : पूंछति ग्रामबधू सिय सों, कहौ, साँवरे - से सखि रावरे को हैं । सीता का उत्तर संकेत में है : 'तिरछे करि नैन दै सैन तिन्हें समुझाइ कछू मुसुकाइ चलीं ।' गीतावली में वन-मार्ग का प्रसंग विस्तार से आया है, लगभग तीस पदों में । सखियाँ पारस्परिक वार्तालाप में अपने भाव व्यक्त करती हैं और दर्शन से नेत्रों को सार्थक करना चाहती हैं। नेत्र से आरंभ होकर प्रेम, चेतना में प्रवेश करता है और स्थायी होकर श्रद्धा-भक्ति का रूप ग्रहण करता है, शर्त यह कि रूप के साथ गुण भी हों। गीतावली में ग्रामजन का यह समर्पण-भाव देवताओं को भी आश्चर्य में डाल देता है कि जो कौड़ियों के लिए तरस रहे थे, उन्हें राम की पारसमणि मिल गई, रूपान्तरण हो गया ( अयो. 32) : जेहि जेहि मग सिय- राम-लखन गए तहँ तहँ नर-नारि बिनु छर छरिगे । निरखि निकाई - अधिकाई बिथकित भए बच, बिय-नैन-सर सोभा - सुधा भरिगे । जो बिनु, बए बिनु, निफन निराए बिनु सुकृत - सुखेत सुख - सालि फूलि फरिगे । मुनिहुं मनोरथ को अगम अलभ्य लाभ सुगम सो राम लघु लोगन को करिगे । निराला ने लिखा है कि बादल - राग से : हँसते हैं छोटे पौधे लघुभार तथा विप्लव - रव से छोटे ही हैं शोभा पाते । धनुषयज्ञ प्रसंग में राम जब धनुर्भग करते हैं तो सब प्रसन्न होते हैं, पर दुष्ट उदास होते हैं । पराजित सामंती की स्थिति यह कि धनुष तोड़ने से क्या होगा : तोरें धनुष चांड़ नहिं सरई, जीवत हमहि कुँअरि को बरई । पर सज्जनों के माध्यम से तुलसी की टिप्पणी है : बलु, प्रताप बीरता तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 195

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