Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 193
________________ माहीं, संत मिलन सम सुख जग नाहीं । ज्ञान - भक्ति प्रसंग विस्तार से है जिसे विवेचित करने के लिए तुलसी ने उपमाओं-बिम्बों का भी आश्रय लिया है । वे दोनों में संगति पाते हैं : भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा, उभय हरहिं भव संभव खेदा। रामकथा के पात्र इसे चरितार्थ करते हैं कि विवेकपूर्ण ज्ञान संपन्न सात्त्विक भक्ति ही सच्ची भक्ति है। हनुमान विवेक के प्रतीक हैं और भरत जिनसे भक्ति परिभाषित होती है, वे तप-त्याग को भक्ति का मूल स्वर मानते हैं I तुलसी की भक्ति में प्रेम, प्रीति और उसके समानार्थी शब्द बार-बार आते हैं, कई रूपों में, पर वे परिभाषित हैं, वैचारिक स्तर पर और फिर पात्रों के आचरण में, जिससे जटायु पक्षी भी मुक्ति पा जाता है । साधारण पात्रों की बड़ी संख्या तो राम - कथा में है ही, जिसमें वानरी सेना भी सम्मिलित है। जिसे प्रपत्ति अथवा शरणागति भाव कहा गया और जिसे रामानुजाचार्य, रामानंद जैसे वैष्णवाचार्यों ने विवेचित किया, उसमें निष्काम भाव की अनिवार्यता है । कई साधन हैं, जिनकी चर्चा तुलसी ने की है, जिनमें आग्रह सत्संगति का है, जो संत में ही सुलभ है। इस प्रकार संत का साहचर्य भक्ति का प्रस्थान बनता है, जिसमें गुरु भी एक है । तुलसी का सर्वाधिक बल 'विमल विवेक' पर है, जो निर्मल ज्ञान का प्रतीक है। यह मिलेगा कैसे : बिनु सतसंग बिबेक न होई और गुरु ज्ञानी है : उघरहिं बिमल बिलोचन ही के । तुलसी ने सात्त्विक ज्ञान, सात्त्विक श्रद्धा आदि शब्दों का प्रयोग किया है, जो विवेकी भक्ति के समीपी हैं । मानस के मंगलाचरण में ही कहा गया : भवानीशंकरौ बन्दे श्रद्धाविश्वास रूपिणौ । शंकर को बोधमय-ज्ञानमय कहा गया और वाल्मीकि, हनुमान के संदर्भ में 'विशुद्ध विज्ञानौ' शब्द का प्रयोग किया गया। तुलसी के भक्तिदर्शन को केवल शास्त्रीय मापदंड से देखना उचित नहीं होगा । वे शास्त्र - पांडित्य - परिचालित भक्तिचिंतन को सामान्यजन तक पहुँचाना चाहते हैं, पर भाववाद के संकट को भी जानते हैं, जिससे कर्मकांड - पुरोहितवाद आदि फलते-फूलते हैं, समाज में मिथ्याचार बढ़ते हैं और सत्य गायब हो जाता है। इसलिए वे भक्ति - ज्ञान का संयोजन करते हैं, आग्रह 'विवेक' पर है, जो विमल होना चाहिए । किंचित् भावुकता से कहते हैं कि विमल विवेक से ही रामकथा का प्रणयन संभव है: गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन, नयन अमिय दृग दोष विभंजन/ तेहिं कर बिमल बिबेक बिलोचन, बरनउं रामचरित भव-मोचन । अन्यत्र वे कहते हैं : उघरहिं बिमल बिलोचन हिय के । जब विवेक खंडित होता है, तो दुर्घटना होती है कि रावण जैसा शंकरभक्त भी विनाश की ओर अग्रसर होता है । मानस के प्रारंभ में पार्वती की जो कथा किंचित् विस्तार से है, उसमें भी विवेक की लड़खड़ाहट है कि उनमें संशय जन्म लेता है। नारद मोह में भी इसी प्रकार की स्थिति है, यद्यपि एक में जिज्ञासा है, दूसरे में आसक्ति । विवेक, निर्मल ज्ञान तुलसी की भक्ति के मूलाधार हैं जिन्हें वे निष्काम प्रेम भावना से संयोजित करते हैं और विनयपत्रिका स्वयं इसे प्रतिपादित करती चलती है । मध्यकालीन समय-समाज की स्थितियाँ भी 198 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन

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