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तिन्हहिं देव सर सरित सराहहिं। राम-सीता-लक्ष्मण के आगमन का समाचार सुनकर, सब उनके दर्शन के लिए दौड़ पड़ते हैं : राम लखन सिय रूप निहारी, पाइ नयन फलु होहिं सुखारी। वे हर प्रकार से उनकी सेवा करते हैं और उनका शील-स्वभाव ग्रामजन को बाँध लेता है। तुलसी कहते हैं इस प्रेमभाव का वर्णन असंभव है, लोग कहते हैं कि नेत्रों को सार्थक कर लो, जैसा कि गोपियों ने कहा था-ब्रजलोचन बिनु लोचन कैसे, कुछ इसी प्रकार का। और ये सामान्यजन हैं : बरनि न जाइ दसा तिन्ह केरी, लहि जनु रंकन्ह सुर मनि ढेरी/एकन्ह एक बोलि सिख देहीं, लोचन लाहु लेहु छन एहीं। गांधी की देशव्यापी यात्राओं का स्मरण करें तो जहाँ-जहाँ वह भारतीय किसान का प्रतीक 'अधनंगा फकीर' जाता था, वहाँ भीड़ उमड़ पड़ती थी। ग्रामजन उन्हें अवतार रूप में देखते थे और कहा तो यहाँ तक जाता है कि उनके चरणों की धूलि तक बटोरकर रख लेते थे, स्मृति-चिह्न के रूप में। वनमार्ग में ग्रामजन की सहज प्रतिक्रियाएँ तुलसी की उस सामाजिक चेतना से उपजी हैं, जहाँ देवत्व की स्वीकृति भी उसके मानुषीकरण में है। सामाजिक मान्यता ही सही मान्यता है, दरबार की नहीं। सामान्यजन स्वीकारें तब वह देवता है, नहीं तो शासकों के चाटुकारों की किसी भी समय में कोई कमी नहीं। इसी दृश्य के बीच राम का सीता के प्रति प्रगाढ़ अनुराग-भाव का संकेत है : जानी श्रमित सीय मन माहीं, घरिक बिटुंब कीन्ह बट छाहीं। कवितावली की पंक्ति है : तिय की लखि आतुरता पिय की अंखियाँ अति चारु चलीं जल च्चै।
वन-मार्ग में ग्राम-नारियों की प्रतिक्रियाएँ तुलसी ने भावना की संपूर्ण क्षमता से व्यक्त की हैं और यहाँ कविता का संवेदन-धरातल पूर्णता पर है : थके नारि-नर प्रेम पियासे, मनहुँ मृगी मृग देखि दियासे, जैसे मृग-मृगी रूप की मशाल देखकर स्तब्ध रह गए हों। ग्रामनारियाँ स्नेह भरे संकोच में हैं कि सीता से पूछे भी तो कैसे ? स्वयं को गँवार तक कहती हैं, पर संबंध जानने की सहज जिज्ञासा है : स्वामिनि अबिनय छमबि हमारी, बिलगु न मानब जानि गवाँरी और फिर प्रश्न : कोटि मनोज लजावनि हारे, सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे । ग्रामनारियों के प्रश्न की सहजता उनकी निश्छलता का बोध कराती है, पर सीता के उत्तर में शील, मर्यादा की उत्कृष्ट व्यंजना है, जिसके लिए राम का स्मरण किया जाता है। सीता का स्नेही शील-स्वभाव वरेण्य है और महाकवि ने इसे मार्मिकता दी है :
तिन्हहिं बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ सकोच सकुचति बर बरनी सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी सहज सुभाय सुभग तन गोरे। नामु लखनु लघु देवर मोरे बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बांकी खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहि सियं सयननि भईं मुदित सब ग्रामबधूटीं। रंकन्ह राय रासि जनु लूटी।
194 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन