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से जाना है । एक प्रकार से वह आभिजात्य से मुक्ति का काव्य है, इस दृष्टि से कि वे स्वयं को व्यापक लोक से संबद्ध करके रचना करते हैं । इसलिए उनका समाजदर्शन वैचारिकता में सामान्यजन को सम्मिलित करके अग्रसर होता है, वह देखा गया यथार्थ है, मध्यकालीन समाज में। एक प्रकार से यहाँ भी सूर जैसा ग्राम - नगर समाज का द्वंद्व देखा जा सकता है । रामवनगमन राम के व्यक्तित्व को नई दीप्ति देता है, पर उसके मूल में केवल शाप अथवा देवताओं के निहित स्वार्थ नहीं हैं, वरन् अंतःपुर के कलह का भी संकेत है। स्वर्ण की लंका तो जैसे भोग-विलास-आधारित अनैतिकता का मूर्तिमान रूप ही है। जिस दानव नगरी में विभीषण-त्रिजटा आदि अपवाद हैं, शेष रावण के आतंक में जीते हैं। ग्राम जीवन को उरेहते हुए, तुलसी उस लोकसंस्कृति का सक्षम उपयोग करते हैं, जो उनमें रची-पगी है । जैसे सूर में ब्रजमंडल उपस्थित है, वैसे ही जायसी में अवध जनपद और तुलसी में उत्तरभारत । इसके विस्तार में जा पाना संभव नहीं, पर तुलसी की 'लोकदृष्टि' की समझ के लिए उसकी पहचान आवश्यक है। ग्राम चित्र, प्रकृति, लोकविश्वास, उक्तियाँ, रीति-रिवाज़ सब वहाँ उपस्थित हैं, पर जरूरी नहीं कि सर्वत्र कवि की आस्था भी इनमें हो । शकुन-अपशकुन आदि तो लोकविश्वास के रूप में आए हैं, महाकवि के मूल्य तो राम को केंद्र में रखकर संचरित होते हैं । उनका प्रभाव ऐसा कि प्रकृति भी सौंदर्य पा जाती है : जब तें आइ रहे रघुनायक, तब तें भयउ बन मंगलदायक (चित्रकूट ) । तुलसी का कौशल यह कि राम को सामाजीकृत करते हुए, वे वृहत्तर समुदाय को रामगाथा से जोड़ते हैं और कथा कहते हुए नाटकीय दृश्य-विधान का सहारा लेते हैं, कहीं वार्तालाप का और कहीं स्थिति परिवर्तन का । सामान्यजन की प्रतिक्रियाएँ तुलसी की लोकधर्मिता से उपजी हैं कि किसी घटना के विषय में वृहत्तर जन-मानस क्या सोचता है, इसे व्यक्त किया जाना चाहिए ।
तुलसी ने वक्ता श्रोता युग्म की परिकल्पना की और उन्हें ज्ञाननिधि कहा । आरंभ में ही इसका उल्लेख है कि शिवजी ने इसे रचा और सही समय पर पार्वती को सुनाया, इसीलिए इसका नाम रामचरितमानस है : रचि महेस निज मानस राखा, पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा / तातें रामचरितमानस बर, धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हरि । शिव ने यह सुहावना चरित्र रचा और पार्वती श्रोता बनीं। शिव ने इसे काकभुशुंड को दिया जिन्होंने याज्ञवल्क्य को यह कथा सुनाई, फिर याज्ञवल्क्य ने भरद्वाज को । वक्ता श्रोता के युग्म हैं : शिव-पार्वती, काकभुशुंडि-गरुड़, याज्ञवल्क्य-भरद्वाज, तुलसी और संतजन । स्वयं तुलसी ने यह कथा अपने गुरु से सुनी थी : मैं पुनि निज गुरु सुनी कथा सो सूकरखेत, समुझी नहिं तस बालपन, तब अति रहेउँ अचेत । कथा की इस श्रोता - वक्ता पद्धति से तुलसी को कई प्रसंगों का विन्यास करने, उन्हें विस्तार देने में सहायता मिलती है; जैसे वे बार-बार संबोधित करते चलते हैं, श्रव्य को दृश्य नाते । श्रोता श्रोता ही नहीं रहते, वे दर्शक भी बनते हैं और इस प्रकार काव्य की
192 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन