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ने संत-असंत, सुर-असुर की प्रवृत्ति-चर्चा विस्तार से की है। रामचरितमानस के आरंभ में संतों की सराहना करते हुए कहा गया है : मुद मंगलमय संत समाजू, जो जग जंगम तीरथ राजू। संत-समाज आनन्दमय, कल्याणमय है, गतिमय तीर्थराज जिसमें गंगा की भक्ति है और ब्रह्म का विचार पक्ष । तीर्थराज शब्द का प्रयोग एक से अधिक बार हुआ, संतों के निर्मल विवेक, पवित्र आचरण का बोध कराते हुए। कहा गया कि : बिनु सतसंत बिबेक न होई और विवेक के अभाव में जीवन व्यर्थ। एक ही स्थान पर संत-असंत की तुलना की गई : बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं, मिलत एक दुख दारुन देहीं। जल में कमल और जोंक दोनों का जन्म होता है, पर प्रवृत्तियाँ कितनी पृथक हैं : उपजहिं एक संग जल माँही, जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं। अरण्यकांड के अंत में राम नारद से संतों का वर्णन करते हैं कि वे विकाररहित हैं : षट विकार जित अनघ अकामा, अचल अकिंचन सुचि सुखधामा/अमितबोध अनीह मितभोगी, सत्यसार कवि कोबिद-जोगी। उनके गुण हैं : जप-तप, व्रत-दम, संयम-नियम, श्रद्धा-क्षमा, मैत्री-दया, मुदिता-भक्ति, विवेक-विनय, विज्ञान-संपन्न तथा दंभ-मान-मद रहित। तुलसी ने संत की जो अवधारणा की है, वह यूटोपियाई कही जा सकती है, पर यह कवि की उच्च कल्पना से निर्मित है, एक संतकवि की अभीप्सा भी। अयोध्याकांड में राम महर्षि वाल्मीकि से प्रश्न करते हैं कि वनवास के लिए उपयुक्त स्थान क्या होगा और वाल्मीकि का दार्शनिक उत्तर है : जहँ न होउ तहँ देहु कहि, तुम्हहि देखावौं ठाउँ (दोहा 127) सर्वव्यापी राम को कौन-सा स्थान बताया जाय ? पर इस अवसर का उपयोग करते हुए तुलसी महर्षि वाल्मीकि से उन भक्तजन की चर्चा करते हैं, जिनकी चेतना में राम वास करते हैं। यह प्रवृत्तिगत, मूल्यगत वर्णन है जिसमें प्रपत्ति अथवा शरणागति भाव के साथ मूल्य-निष्पादित कर्मों की विवेचना है, जहाँ जाति-पाँत-धन-धरम-बड़ाई निष्प्रयोजन हैं :
काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा जिन्ह के कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी तुम्हहि छाड़ि गति दूसर नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं जननी सम जानहिं परनारी। धन पराव विष तें विष भारी जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर विपति बिसेषी
जिन्हहिं राम तुम प्रानपियारे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे राम को सामाजीकृत करते हुए तुलसी भक्तों का जो संसार रचते हैं, वहाँ पुरोहित-परिचालित कर्मकांड को स्वीकृति नहीं है। लोकप्रचलित विश्वासों के रूप में उसके कुछ वर्णनात्मक प्रसंग भर आए हैं, जिससे भारतीय लोकजीवन का वृत्त पूरा होता है। जटायु, शबरी, अजामिल, अहिल्या के प्रति राम का करुणा-भाव उनके व्यक्तित्व को परम उदारता से संपन्न कराता है। कई बार लगता है जैसे राम 'वज्र
तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 183