Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 176
________________ क्रोध के प्रतीक हैं, गीता के 'परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्, अभ्युत्थानं धर्मस्य' को चरितार्थ करते। रामचरितमानस में राम अवतरण का सामाजिक आशय स्पष्ट है ( बालकांड, दोहा 121 ) : जब जब होइ धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी । सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा । हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा असुर मारि थापहिं सुरन्ह, राखहिं निज श्रुति सेतु जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु । I राम को मध्यकाल के समानांतर चरितनायक के रूप में परिकल्पित करते हुए, तुलसी उन्हें विचार और कर्म की समन्वित भूमि देते हैं । यह सच है कि राम वक्तव्यों में कम कहते हैं, कर्म से अधिक प्रमाणित करते हैं, पर तुलसी अन्य प्रसंगों में पात्रों के द्वारा अथवा स्वयं भी राम के रामत्व का संकेत करते चलते हैं । इसमें कहीं-कहीं अलौकिक रेखाएँ भी हैं, पर महाकवि सावधान हैं कि राम का मर्यादा पुरुषोत्तम रूप सुरक्षित रहे क्योंकि वह समाज को प्रेरित - प्रभावित करता है। राम का अवतरण हुआ है: बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार । मनुष्य रूप में राम का आगमन सामाजिक मर्यादाओं की प्रतिष्ठा के लिए है, जिसके लिए सुर-संत आदि वर्गों का चयन तुलसी ने किया है। राम का एक मूल्य-संसार है, जो उनके व्यक्तित्व को परिचालित करता है और जिसे व्यापक सामाजिक स्वीकृति मिलती है । बालि राम के 'समदरसी' रूप पर टिप्पणी करता है : धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं, मारेहु मोहि ब्याध की नाई / मैं बैरी सुग्रीव पियारा, अवगुन कवन नाथ मोहि मारा । राम का मूल्य - आश्रित तर्क है : अनुज- बधू, भगिनी, सुत-नारी, सुनु सठ कन्या सम ए चारी/इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई, ताहि बधें कछु पाप न होई । विचारवान राम का विवेक-आधारित मूल्य-संसार है जिससे उनके सामाजिक कर्म निष्पादित होते हैं । राम-रावण संघर्ष इसीलिए वैयक्तिक नहीं कहलाता और सीता हरण तो एक निमित्त बनता है । विचारणीय यह कि राम एकाधिक बार रावण को चेतावनी देते हैं - हनुमान, अंगद द्वारा। एक के बाद एक उसके प्रिय समाप्त होते जाते हैं, पर वह नहीं मानता। यहाँ तक कि माल्यवान, मंदोदरी आदि भी समझाते हैं, पर उसका अनियंत्रित अहंकार उसे अंधा कर देता है । उत्तरकांड के कलिकाल वर्णन में अहंकार को बड़ा विकार माना गया है : अभिमान, बिरोध, अकारनहीं और रावण इसका मूर्तिमान रूप । वह व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं है, मूल्यहीन आसुरी वृत्तियों का प्रतीक है - विकारों का ढेर । अंतिम क्षणों में रावण का सारथी उसे समझाता है : तेहिं पद गहि बहु बिधि समझावा, पर रावण मानता ही नहीं । पत्नी के रूप में मंदोदरी रावण के लिए विलाप करती हुई, उसके पराक्रम का स्मरण करती है : तब बल नाथ डोल नित धरनी, तेज हीन पावक ससि तरनी। पर विनाश का कारण है : राम विमुख अस हाल तुम्हारा, रहा तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 181

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