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तृप्तिं ययुः सर्व श्रोतारो गेयसंपदा : मधुर संगीत का क्रम बँध गया, अलौकिक गान था। गेय-संपत्ति से श्रोता मुग्ध हो गए, तृप्ति ही न होती थी। तुलसी वाल्मीकि, भवभूति की करुणा से प्रभावित हैं, जो रामचरितमानस में अंतर्भुक्त है, पर वे अपने काव्यनायक राम की सामाजिकता का विशेष ध्यान रखते हैं। जिसे राम का लोकपक्ष, मर्यादावाद, शील आदि कहा गया, वह तुलसी की रचनाशीलता का उल्लेखनीय विधान है। बालकाण्ड में राम-महिमा का बखान करते हुए तुलसी कहते हैं कि कलियुग में न कर्म, न भक्ति, न ज्ञान, केवल राम नाम ही आधार है : नहि कलि करम न भगति बिबेकू, राम नाम अवलंबन एकू। यही राम अपने कर्मवान व्यक्तित्व से स्वयं को प्रमाणित करते हैं : कहा गया कि राम नाम नृसिंह अवतार है, कलियुग हिरण्यकशिपु
और राम नाम जपने वाले भक्तजन प्रहलाद। पर तुलसी सजग हैं कि राम केवल मंत्र-जाप बनकर न रह जायँ, इसलिए वे उनका संपूर्ण व्यक्तित्व विकसित करते हैं और उन्हें विश्वसनीयता देते हैं। ऐसा तभी संभव है जब उनमें मूल्य-समन्वित सुकर्मों को निष्पादित किया जाय। उन्होंने राम से अपना संबंध स्थापित किया-सुस्वामी और कुसेवक का। राम की श्रेष्ठता प्रतिपादित की, उन्हें मात्र स्वामी नहीं, सुस्वामी, सुसाहिब कहा-दयानिधान, करुणासागर, गरीबनेवाज और स्वयं को साधारणजन माना, दुर्बलताओं से युक्त। राम नाम की महिमा का विस्तार से वर्णन करते हुए तुलसी सही पृष्ठभूमि निर्मित करते हैं, जिस पर राम का व्यक्तित्व लीला-कर्म के माध्यम से अग्रसर होता है। राम अपने व्यक्तित्व को चरितार्थ करते हैं, तब उनका नाम प्रतीकत्व प्राप्त करता है, इसलिए जाप मात्र से जीवन-संघर्ष पार नहीं किया जा सकता, उसे आचरण के परिप्रेक्ष्य में देखना-समझना होगा। अपने गुरु का सादर स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि राम की कथा गहन है, श्रोता-वक्ता दोनों ज्ञानी चाहिए : श्रोता बकता ग्यान निधि, कथा राम के गूढ़, किमि समुझौ मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़। मध्यकालीन कलिकाल में परिवेश ही लड़खड़ा गया, ऐसे में व्यक्ति के विवेक की रक्षा भी सरल नहीं, पर तुलसी ने इसे पार करने का स्वप्न देखा, राम-चरित्र के माध्यम से।
तुलसी ने राम का काव्यनायक रूप गढ़ते हुए, उनका जो मानुषीकरण किया, वह इस दृष्टि से विचारणीय कि वे उनकी प्रतिष्ठा समानांतर वैकल्पिक चरितनायक के रूप में करना चाहते हैं। तुलसी अपने समय की सामंती व्यवस्था से परिचित हैं और विनय-पत्रिका, कवितावली आदि में उनके जीवनसंघर्ष के जो संकेत मिलते हैं. उन्हें केवल वैयक्तिक पीड़ा के रूप में नहीं देखना चाहिए, उसमें वृहत्तर समाज भी सम्मिलित है। यहाँ बार-बार कलिकाल शब्द का प्रयोग हुआ है, समय की भयावहता को व्यंजित करते। तुलसी कहते हैं : कहा न कियो, कहाँ न गयो, सीस काहि न नायो (विनय. 276) अथवा तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो आदि। एक ओर सामंती समाज है, जो कलिकाल का प्रतिनिधित्व करता, दानव वर्ग के रूप में, जो
तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 179