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मध्यकाल की जो सामाजिक-आर्थिक स्थितियाँ थीं, वे सामान्यजन के लिए विषम थीं, और तुलसी ने एक सजग स्रष्टा के रूप में उन्हें निकट से जाना ही नहीं था, भोगा भी था। तुलसी की जिन पंक्तियों से उनकी जीवन-रेखाएँ बनाने का प्रयत्न किया जाता है, वह अपने स्थान पर सही है। किन्तु इसमें व्यापक विपन्न समाज भी सम्मिलित है, तुलसी जिसके प्रवक्ता हैं। मुक्तिबोध जिसे व्यक्ति-संवेदन और समाज-संवेदन का संयोजन कहते हैं, उसे तुलसी के सामाजिक यथार्थ में देखा जा सकता है। कवितावली में तुलसी कहते हैं : पेट की आग के कारण मैंने जाति, सुजाति, कुजाति के टुकड़े माँगकर खाए हैं : जाति के, सुजाति के, कुजाति के पेटागि बस, खाए टूक सबके। बारे तैं ललात-बिललात द्वार-द्वार दीन (कवितावली); असन बसन हीन, विषम विषाद लीन (हनुमानबाहुक) आदि में सामाजिक पीड़ा भी सन्निहित है, इसे ध्यान में रखने पर ही तुलसी के सजग सामाजिक बोध को समझा जा सकता है। व्यापक अर्थ में व्यक्ति का अनुभव रचना का आरंभिक प्रस्थान है, पर सजग प्रतिभा यहीं रुक-ठहर नहीं जाती, वह इसे वृहत्तर जीवनानुभव से जोड़ती है, स्वयं को पार करती है और अधिक बड़े समाज को सम्मिलित करने में सफल होती है। इस दृष्टि से 'विनयपत्रिका' का भाव-संसार विचारणीय है कि क्या इसे संतकवि का वैयक्तिक निवेदन कहकर संतोष कर लिया जाय ? मेरे विनम्र विचार से यह अधूरा साक्षात्कार होगा और महाकवि की सामाजिक चेतना के साथ न्याय नहीं हो सकेगा। कवितावली (उत्तरकांड) के अंत में काशी की महामारी यथार्थ है : बिकल बिलोकियत, नगरी बिहाल की (169)।
विनयपत्रिका के आरंभ में गणेश-स्तुति है और अनेक स्तुतियों (जिनमें गंगा, काशी, चित्रकूट की स्तुति भी है) से होते हुए तुलसी अपने प्रिय आराध्य राम तक आते हैं। सभी देव राम-कथा से संबद्ध हैं और कवि उन्हें इसी रूप में देखता है। यहाँ कवि के जीवनी-संदर्भ भी हैं : राम को गुलाम, नाम रामबोला राख्यौ राम। पर विनय-भक्ति के बीच में कलिकाल के संकेत हैं : कलि कराल दुकाल दारुन, सब भाँति कुसाजु (पद 219)। विनयपत्रिका के एक लंबे वर्णनात्मक प्रसंग में कलियुग का उल्लेख किंचित् विस्तार से है, जिसमें विकृत समय-समाज की चर्चा है : तिहुँ ताप तई, सब सुख हानि, रिस-राग-मोह-मद, राज-समाज कुसाज, कलुष कुचाल, लोक-बेद-मरजाद गई, पतित प्रजा, पाखंड पापरत आदि। विनयपत्रिका में कई स्थलों पर कलिकाल शब्द (पद 169, 170, 173, 184, 265 आदि) संकेत करता है कि संत कवि वृहत्तर सामाजिक-सांस्कृतिक भावना से परिचालित हैं। वैयक्तिक मोक्ष महाकवि की अभीप्सा नहीं है, वे सबकी मुक्ति की कामना करते हैं। इस आशय को भी उन्होंने स्पष्ट किया कि क्षुद्रता, पाप, मूल्यहीनता आदि विकारों से मुक्ति ही सच्ची मुक्ति है। कलिकाल के लंबे पद में तुलसी राम को महान् मुक्तिदाता के रूप में देखते हैं, जिससे चेतना का नया रूपांतरण होता है (139) :
तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 177