________________
दीजै दादि देखि ना तौ बलि, मही मोद-मंगल रितई है भरे भाग अनुराग लोग कहैं, राम-कृपा-चितवनि चितई है। बिनती सुनि सानन्द हेरि हँसि, करुणा-बारि भूमि भिजई है राम-राज भयो काज, सगुन सुभ, राजाराम जगत बिजई है। समरथ बड़ो, सुजान सुसाहब, सुकृत-सैन हारत जितई है सुजन सुभाव, सराहत सादर, अनायास साँसति बितई है। उथपे थपन, उजारि बसावन, गई बहोरि बिरद सदई है
तुलसी प्रभु आरत-आरतिहर, अभय बाँह केहि केहि न दई है। तुलसी में दैन्य-समर्पण कई रूपों में है जिसे प्रपत्ति, शरणागति भाव का संवेदन-संस्करण कहना होगा, सूर का समीपी। पर इसके मूल में कवि का सामाजिक प्रयोजन है, जिससे भक्तिभाव को मानववादी अवधारणा से संबद्ध किया जा सकता है। तुलसी के विनय-प्रार्थना भाव में वृहत्तर समाज सम्मिलित है, जो समय-समाज से विक्षुब्ध है : दीन दयालु, दुरित दारिद दुख दुनी दुसह तिहुँ ताप तई है, देव दुवार पुकारत आरत सबकी सब सुख हानि भई है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि राम की प्रार्थना कवि का सामाजिक भाव है, जैसे गोपिकाओं की रागात्मकता में सूर भी सम्मिलित हैं। तुलसी ने भक्ति को समय के विकल्प रूप में देखा, मूल्य-स्तर पर और राम को वैकल्पिक काव्य-नायक के रूप में प्रतिष्ठित किया। एक ओर है मध्यकालीन सामंती समाज, जो शरीर पर जीता है, दूसरी ओर सामान्यजन हैं, जिनकी स्थिति दयनीय है। वनवासी समाज-कोल किरात भिल्ल आदि की दीन दशा स्वयं उनके मुख से कहलाई गई है :
तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोग न भाग हमारे देब काह हम तुम्हहि गोसांईं। ईंधन पात किरात मिताई यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहिं न बासन बसन चोराई हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहिं पेट अघाहीं
सपनेहुं धरमबुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ काव्यनायक राम को तुलसी अपने समय के विकल्प रूप में गढ़ते हैं और परंपरा से जो कुछ प्राप्त किया है, उसे नया विन्यास देते हैं। आदिकवि के शंबूक, सीता-निष्कासन आदि के प्रसंग राम की मर्यादा खंडित करते हैं, इसलिए इन्हें बराया जा सकता है। संभव है महर्षि वाल्मीकि के अवचेतन में अभीप्सा रही हो कि वे रामकथा के समापन अंश में उपस्थित रहें : वाल्मीकि आश्रम की योजना, महर्षि द्वारा राम-पुत्रों का लव-कुश नामकरण और राम के यज्ञ में उन्हें रामायण-गान का आदेश । गायन की वाचिक परंपरा से जोड़कर वाल्मीकि काव्य को जन-जन तक पहुँचाना चाहते हैं। रामायण-गान का प्रभाव है : ततः प्रवृतं मधुरं गांधर्वमतिमानुषम्। न च
178 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन