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कलिकाल को 'अवगुण आगार' कहते हैं तो उनकी चिंता मूल्य-संसार को लेकर है। राजनीतिक व्यवस्था ऊपरी ढाँचा है, जो दिखाई देता है, पर इससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यचिंताएँ, जिनसे मनुष्य मनुष्य कहलाता है। तुलसी ने आडंबर, पाखंड, मिथ्याचार पर टिप्पणियाँ की हैं और संभव है उनका स्वर सिद्ध-नाथ, कबीर जैसा तीखा न हो, पर वे अपने असंतोष को निर्भय वाणी देते हैं : पंडित सोइ जो गाल बजावा; नर अरु नारि अधर्मरत; धन मद मत्त परम बाचाला, उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला, मोह-लोभ बस, झूठ-मसखरी, अपकारी, कामवश आदि।
समाज की ऐसी मूल्यहीन स्थिति में सर्वाधिक दुर्दशा सामान्यजन की होती है, इसे तुलसी जानते हैं। कलिकाल के प्रसंग में उन्होंने कहा है : कलि बारहिं बार दुकाल परै, बिन्नु अन्न दुखी सब लोग मरे (मानस : उतर.)। कवितावली में भी यह दुकाल है, दारिद्र्य के साथ : दिन-दिन दूनौ देखि दारिदु, दुकालु दुख, दुरित, दुराजु, सुख-सुकृत सकोच है/मा पैंत पावत पचारि पातकी प्रचंड, काल की करालता, भले को होत पोच है। यहाँ तुलसी 'दुकाल' शब्द का प्रयोग करते हैं, जिससे व्यापक दारिद्र्य, अभाव, असमय की ध्वनि आती है। जहाँ तक अकाल अथवा दुर्भिक्ष का प्रश्न है, इतिहासकार अबुलफ़ज़ल ने इसका उल्लेख किया है कि जिस वर्ष अकबर सिंहासन पर बैठा (1556) उसी वर्ष भीषण अकाल पड़ा। अन्य इतिहासकार भी
अनावृष्टि से उपजे कई अकालों का उल्लेख करते हैं (आर.सी. मजूमदार सं. : द मुग़ल इम्पायर, पृ. 735)। तुलसी दुकाल शब्द का चुनाव करते हैं, कुसमय का बोध कराने के लिए। काकभुशुण्डि को इस दुकाल में अयोध्या छोड़नी पड़ी थी : तेहि कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध विहगेस, परेउ दुकाल विपति बस तब मैं गयउँ बिदेस (मानस : उत्तर.)। इस दुकाल में सामान्यजन की जो दुर्गति होती है, वह उसे भीतर से तोड़ देती है : आगि बड़वागि तें बड़ी है आगि पेट की (कवितावली)। भूख की ज्वाला में जलता हुआ सर्वहारा ही इसे जानता है कि प्राकृतिक विपदाओं को तो किसी प्रकार सहा जा सकता है, क्योंकि कई बार वे आकस्मिक भी होती हैं और उनसे बचाव भी सरल नहीं पर दो जन की रोटी तो चाहिए ही। यों भी निर्धन की रक्षा राम के बिना करेगा कौन ? पर तुलसी चिरंतन दुकाल को देखते हैं, जो मध्यकालीन सामंती व्यवस्था में व्यापा है। ग्राम-बहुल समाज-व्यवस्था कृषि-आधारित है, वहाँ निर्धनता है : कृसगात ललात जो रोटिन को, घरबात धरो खुरपा-खरिया (कवितावली : उत्तर.) : शरीर के नाम पर अस्थिपंजर, रोटी के लिए बिलबिलाते नर-कंकाल और पूंजी के नाम पर खुरपा-खरिया। यह है मध्यकाल का भयावह यथार्थ, जिसे तुलसी ने कलिकाल, दुकाल कहकर संबोधित किया। महाकवि ने संवेदन के गहरे स्तर पर इसका अनुभव किया और कुछ स्थलों पर उसे शासक रूप में देखा : सुनिए कराल कलिकाल भूमिपाल तुम्ह, जाहि घालो चाहिए, कहौ धौं राखै ताहि को (कवितावली : उतर.)।
176 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन