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समाज है, जहाँ शासक वर्ग कर्तव्यच्युत है, अपने सामाजिक दायित्व का पालन नहीं करता। तुलसी राजकाज को 'कुपथ्य' के रूप में देखते हैं और कहते हैं कि सब भोग-विलास में डूबे हुए हैं : राजकाज कुपथु, कुसाजु भोग रोग ही के (कवितावली, उत्तर.)। वे निर्मम दुष्ट स्वामियों पर टिप्पणी करते हैं : ब्योम, रसातल भूमि भरे नृप कूर, कुसाहेब सेंतिहुँ खारे। ऐसे नरेशों से माँगा भी क्या जाय : जाचै को नरेश, देस-देस को कलेसु करै, देहैं तो प्रसन्न ह्वै बड़ी बड़ाई बौंड़िए (वही)। विनयपत्रिका (पद 177) के अंत में वे राजाओं को चोर कहकर तीखी टिप्पणी करते हैं : भूमि चौर भए नृप। राजत्व सामंती समाज का प्रतिनिधि है, जो अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करता। रावण और उसकी लंका को पौराणिक संदर्भो से थोड़ा अलगाकर देखें तो उसमें मध्यकालीन सामंतवाद की छाया मौजूद है : शरीरवादी, अहंकारी, छली-कपटी, विलासी। जो लोग रावण को म्लेच्छ रूप में देखते हुए, सांप्रदायिक संकेत करना चाहते हैं, वे तुलसी की गहरी सांस्कृतिक दृष्टि को नहीं समझते। तुलसी ने सामंती समाज के शासक को दायित्वविहीन कहा है और उनका विचार है कि : जासु राजु प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी। इतिहास दायित्वहीन शासकों को क्षमा नहीं करता।
तुलसी की राजनीतिक चिंताओं से कहीं अधिक बड़ी है, उनकी सामाजिकसांस्कृतिक चिंता। राजनीति का एक तात्कालिक पक्ष होता है, अथवा सत्ता पक्ष, पर समाज के प्रश्न कहीं अधिक जटिल होते हैं और उनके छोटे उत्तर खोजना भूल होगी। सजग संवेदनशील कवि के रूप में तुलसी इसे जानते हैं कि रचना की भूमिका कहीं अधिक दायित्वपूर्ण है। इसलिए मध्यकालीन समय-समाज के संदर्भ में उनकी सर्वाधिक चिंता टूटती मूल्य-मर्यादा को लेकर है। वर्णाश्रम-व्यवस्था के टूटने के विषय में उनकी चिंता को लेकर कुछ विद्वान् उनसे अपनी असहमति भी व्यक्त करते हैं। पर उदार दृष्टि से देखें तो पाएँगे कि श्रम-विभाजन पर आधारित वर्ण व्यवस्था कर्म का आग्रह करती है। आगे चलकर सुविधाभोगी समाज ने उसे जन्म से संबद्ध कर दिया और वर्ण स्थायी हो गए। दुर्घटना यह हुई कि वर्ण ने जाति का रूप ग्रहण किया और जातियाँ असंख्य उपजातियों में विभाजित हो गईं। जिस विप्र, ब्राह्मण वर्ग के समर्थन के लिए तुलसी पर आक्षेप किए जाते हैं, वहाँ यह भुला दिया जाता है कि तुलसी के लिए दायित्व-पालन सर्वोपरि है। गीता (अध्याय तीन) में कहा गया कि अपने धर्म में मरण भी कल्याणकारी है। यहाँ धर्म दायित्वबोध के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है : श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः। तुलसी की चिंता यह कि समाज की विभिन्न इकाइयाँ अपना कर्तव्य-पालन नहीं कर रही हैं, एक अराजक स्थिति है। शासक प्रजापालक नहीं है और बुद्धिजीवी ब्राह्मण वर्ग विवेकसंपन्न नहीं। रामचरितमानस के उत्तरकांड में काकभुशुण्डि गरुड़ को कथा सुनाते हुए कहते हैं : 'कलियुग मल मूल’-पापों का मूल कलियुग । ब्राह्मण वर्ग व्यापारी
174 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन