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जाती हैं, उसका एक कारण उन्हें संदर्भ से काटकर देखने की भूल है। मायारूप में नारी भक्ति, ज्ञान, विवेक के मार्ग में एकमात्र बाधा नहीं हैं, पंचमकार हैं और माया-मोह के अनेक विकार हैं, जिनमें मध्यकालीन शरीरवाद से उपजा भोग-विलास भी है। ऐसी स्थिति में तुलसी को नारी-निंदक कहना अपने पूर्वग्रह को कुतर्क से प्रमाणित करने का प्रयत्न है। तुलसी ने सीता, पार्वती जैसी नारियाँ रची और पार्वती का तप ऐसा कि विरागी शंकर उनका वरण करने के लिए स्वयं प्रिया के पास पहुँचते हैं। पार्वती के माध्यम से तुलसी ने तप (साधना) का विस्तृत बखान किया है : रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी, मूरतिमंत तपस्या जैसी। सीता जगद्जननी हैं, उनका स्वरूप ऐसा कि वर्णनातीत : सुंदरता कहँ सुंदर करईं, छबिगृह दीपसिखा जनु बरईं। तुलसी ने वक्तव्यों में कहा, पात्रों के संवादों का उपयोग करते हुए, नाटकीय कौशल के साथ। पर वे जानते हैं कि वक्तव्य और शब्द की सीमा होती है, इसलिए उन्होंने रामकथा में प्रवाहित पात्रों के माध्यम से गुणों को चरितार्थता प्रदान की। उन मानव-मूल्यों को आचरण की भूमि पर प्रतिष्ठित किया, जिन्हें वे सामंती समय के विकल्प रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस अर्थ में तुलसी के पात्र प्रतीकत्व ग्रहण करते हैं : राम का गुण-समुच्चय, भरत की भायप भक्ति, सीता का पातिव्रत धर्म, लक्ष्मण का सेवा-भाव, हनुमान का विवेक-संपन्न समर्पण आदि। ये सारे चरित्र स्वयं को चरितार्थ करते हैं, सामाजिक स्वीकृति पाते हैं। राम हनुमान को 'सुत' कहकर संबोधित करते हैं : सुन सुत तोहि उरिन मैं नाहीं, देखउँ करि विचारि मन माहीं।
तुलसी भारतीय मध्यकाल को गहरे स्तर पर जानते हैं और उनके काव्य के समाजदर्शन की पहचान के लिए, इसकी समझ आवश्यक है। जिसे भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल तक कहा जाता है, उसमें सांस्कृतिक संवाद की प्रक्रिया को गति मिली, कला-साहित्य के शिखर निर्मित हुए, यह निर्विवाद है। पर इस सबके बीच सामान्यजन का समाज है जो हर असमतावादी समय में अभावों से जूझता है और जिसके लिए स्वर्णमृग एक छलावा ही रहता है। तुलसी की दृष्टि इस सामान्य वर्ग की ओर है जो प्रायः ग्रामवासी था और शहरों से अलग-थलग था। तुलसी ने अपने समय को अभिव्यक्ति देने के लिए वर्णनात्मकता का सहारा, विवरण वृत्तांत के रूप में अधिक नहीं लिया, इसलिए उसकी पहचान का कार्य सरल नहीं रह जाता। कई बार महाकवि के भक्तिदर्शन की चर्चा करते हुए उनकी सामाजिक यथार्थ दृष्टि की अनदेखी कर दी जाती है। तुलसी ने 'कलिकाल' का प्रतीक चुना जिसकी परंपरा पुराण, विशेषतया भक्ति के प्रस्थानग्रंथ भागवत में मिलती है, भविष्य-वर्णन के रूप में। विवेचन के पूर्व यह जानना उपादेय है कि तुलसी मध्यकाल के लिए जिस 'कलिकाल' बिंब का उपयोग करते हैं, उसे वे एक से अधिक स्तरों में देखते हैं और वे ऊपर-ऊपर तैर कर नहीं रह जाते, यथार्थ की गहराई में प्रवेश करते हैं। कवि रूप में वे अपने गहरे संवेदन के साथ उपस्थित हैं और व्यापक चिंताओं से परिचालित हैं। यह सामंती
तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 173