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कवि-कर्म कठिन है, विशेषतया एक ऐसे जटिल समय में जब दृश्य स्पष्ट न हों, कई मत-मतांतर हों और रचना पर तरह-तरह के दबाव। पर तुलसी संकल्पी कवि हैं और जानते हैं कि सांस्कृतिक गंतव्य तक पहुँचना ही होगा, जिसे निराला ने इन शब्दों में व्यक्त किया है : करना होगा यह तिमिर पार, देखना सत्य का मिहिर द्वार (तुलसीदास)। रचना में कथ्य, विषय-वस्तु की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है और तुलसी ने रामकथा का चयन किया तथा चरितनायक राम को केंद्र में रखकर कथा का ताना-बाना रचा। कवि रूप में उनका कौशल यह कि वे कथानायक राम को, अपनी काव्य-क्षमता से काव्य-नायक पद पर प्रतिष्ठित करने में सफल होते हैं। विनय-भाव से तुलसी ने कहा कि मुझमें कोई गुण नहीं, पर मुझे राम का आश्रय है : भनिति मोर सब गुन रहित, बिस्व बिदित गुन एक। पर यह कवि की भक्ति-भावना मात्र नहीं है, यहाँ राम के विराट व्यक्तित्व को रेखांकित किया गया है, जिसे केंद्र में रखकर काव्य को सार्थकता दी जा सकती है। काव्य में राम का चरित्रांकन उसकी मूल संपत्ति है, सही प्रस्थान : एहि महँ रघुपति नाम उदारा, अति पावन पुरान श्रुति सारा। इसे उन्होंने गुणों से समन्वित किया, परम कल्याणकारी रूप में : मंगल भवन अमंगल हारी, उमा सहित जेहि जपत पुरारी। शंकर-पार्वती को राम-उपासक रूप में चित्रित कर तुलसी मध्यकाल के शैव-वैष्णव वैचारिक द्वंद्व का भी समाधान पाना चाहते हैं,
और यह प्रयत्न पूरे रामचरितमानस में अनस्यूत है। शंकर कथा कहते हैं, पार्वती सुनती हैं और राम सेतुबंध रामेश्वरम् में शिवलिंग की स्थापना करते हैं : लिंग थापि बिधिवत् करि पूजा, सिव समान प्रिय मोहि न दूजा (लंकाकांड का आरंभ)। राम-शिव में अन्योन्याश्रित संबंध है, वैचारिक संघर्ष को पाटते हुए।
___ तुलसी ने अपने समय को देखा-समझा-जाना कि राजाश्रय की अभ्यर्थना विद्या की देवी का ही अनादर है। प्रतिभा की सार्थकता उसके व्यापक सांस्कृतिक प्रयोजन में है। आइने अकबरी की सूची में यदि भक्तिकाव्य के प्रमुख स्वर सम्मिलित नहीं हैं तो इससे यह भी प्रमाणित होता है कि अपने समय की सार्थक प्रतिभाएँ कई बार राजकीय स्तर पर अनपुजी ही रह जाती हैं, जबकि सामान्यजन में उन्हें व्यापक स्वीकृति मिलती है। आधुनिक समय में निराला ऐसे ही हैं। तुलसी ने कहा कि 'कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना, सिर धुनि गिरा लगत पछिताना' । इसलिए राम का काव्य-विषय रूप में चयन किया, उन्हें परिभाषित करते हुए। यह कोरा भाववाद नहीं है और न वैयक्तिक मुक्ति कामना से परिचालित अंध भक्ति अथवा कर्मकांड का व्यवसाय; इसके मूल में कवि की गहरी सांस्कृतिक दृष्टि है। वे बौद्धिकता का उल्लेख करते हैं जिससे रचना को पुष्ट वैचारिक आधार मिलता है; बुद्धिमान के लिए हृदय समुद्र, बुद्धि सीप
और सरस्वती स्वाति नक्षत्र है। इसमें श्रेष्ठ विचारों की जलवृष्टि हो तो मुक्तामणि सदृश सुंदर कविता होगी : जौं बरषइ वर बारि बिचारू, होहिं कबित मुक्तामनि चारू । तुलसी ने दर्शन के संप्रदायगत विभाजन को अस्वीकार करते हुए, ऐसी भक्ति का
तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 171