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बिसेस जाना तिन्ह नाहीं। ऐसा बहुआयामी रचना-व्यक्तित्व विरल प्रतिभाओं में होता है जहाँ धर्म-अध्यात्म, नीति-दर्शन, विचार-भाव एक साथ हों, पर सब कुछ काव्य के वृहत्तर संवेदन-संसार में विलयित होकर, सौंदर्य रचाते हुए।
रामकथा की लंबी परंपरा का संकेत करते हुए तुलसी रामचरितमानस के बाल काण्ड के आरंभिक अंश में कहते हैं : रामकथा कै मिति जग नाहीं, असि प्रतीत तिन्ह के मन माहीं/नाना भाँति राम अवतारा, रामायन सत कोटि अपारा। ऐसी स्थिति में भारतीय मध्यकाल में रामचरितमानस की रचना करने के मूल में तुलसी का प्रयोजन क्या है ? अन्य रचनाएँ भी रामकथा का बखान करती हैं : कवितावली, गीतावली, रामलला नहछू, रामाज्ञा प्रश्न, जानकीमंमल आदि । विनयपत्रिका राम की सेवा में प्रस्तुत है : श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं, नवकंज लोचन कंजमुख, करकंज पदकंजारुणं। तुलसी कथावाचक नहीं हैं, वे सजग-सचेत कवि हैं और रामकथा के माध्यम से, अपने समय-मध्यकाल से टकराते हुए, कथा को नए आशय से संपन्न करना चाहते हैं। तुलसी ने सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से लेकर सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध का लंबा समय पार किया। इतिहास की दृष्टि से यह मुगलकाल के विस्तार का समय है जिसे अकबर के शासनकाल में पूर्णता मिली। सामंती दबावों की चर्चा संपूर्ण भक्तिकाल के प्रसंग में की जाती है, जिसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं। पर तुलसी ने कई रूपों में इस विषम वर्ग-व्यवस्था, घनघोर जातिवाद, पाखंड, टूटती मर्यादा, मूल्यहीनता, अनाचार आदि का उल्लेख किया है। मध्यकाल को सांस्कृतिक दृष्टि से एक आंदोलित समय अथवा उथल-पुथल का काल कहा गया है। जातियाँ भारत में आती रही हैं, पर वे क्रमशः मूल सामाजिक धारा में सम्मिलित हो गईं। पर जब इस्लाम आया तो उसका स्वरूप भिन्न था और वह विजेता रूप में आया। एकदेववाद, मूर्तिपूजा का विरोध, एक बिरादरी, आक्रामकता, धर्म-परिवर्तन आदि उसे भारतीय चिंतन से अलगाते हैं। पर आरंभिक टकराहट के बाद जब सामाजिक-सांस्कृतिक संवाद की प्रक्रिया आरंभ हुई तो विचार-विनिमय का ऐसा वातावरण निर्मित हुआ कि भारतीय रचनाशीलता को उसकी स्वाभाविक प्रक्रिया में विकसित होने का नया अवसर मिला। सूबेदारों के संरक्षण में देसी भाषाओं को जो सक्रियता मिली, यह भक्तिकाव्य के उत्कर्ष में विशेष उल्लेखनीय है। तुलसी संस्कृत के पंडित थे, जिसका साक्ष्य उनकी रचनाएँ हैं, पर उन्होंने एक बड़े समाज को संबोधित करने का संकल्प लिया। रामचरितमानस के आरंभ में कहा : भाषा भनिति भोरि मति मोरी। देसी भाषा में रचना के मूल में उनके सामाजिक-सांस्कृतिक आशय हैं, जिसे उन्होंने स्पष्ट किया है।
रामकथा के आरंभ में ही तुलसी अपने काव्य-आशय का संकेत करते हैं। हर समय में यह प्रश्न प्रासंगिक है कि आखिर रचना की अभीप्सा क्या है ? उसका गंतव्य क्या है ? कवि किसे संबोधित कर रहा है और किस प्रयोजन से ? यहीं कवि की
तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 169