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रचना-दृष्टि का परिचय मिलता है, जिससे उसके समाजदर्शन का निर्माण होता है। तुलसी का प्रस्थान वैचारिक है, उच्चतर आशय की ओर अग्रसर होता हुआ, जहाँ वे रामकथा के माध्यम से श्रेष्ठतम मानव-मूल्यों का निष्पादन करते हैं। आरंभ में ही वे रिक्थ, परंपरा का ऋण स्वीकार करते हैं : नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद् । पर इसमें अन्यत्र से भी कुछ प्राप्त किया गया है और इसे देसी भाषा अवधी में व्यक्त किया जा रहा है, जो स्वयं में साहस है-कवि के सांस्कृतिक आशय को स्पष्ट करता। तुलसी विनय भाव से स्वीकारते हैं कि कवित बिबेक एक नहिं मोरे, सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे। मेरा विनम्र विचार है कि रचना के वृहत्तर सांस्कृतिक आशय से परिचालित आत्मविश्वासी कवि ही ऐसे सच्चे विनय-भाव की पंक्तियाँ रच सकता है। तुलसी सबसे पहले अपने अहंकार से लड़ते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि स्वयं को पार किए बिना वृहत्तर संसार में संचरित हो पाना संभव नहीं। मानस 'स्वान्तः सुखाय' है, पर इसमें सब सम्मिलित हैं, क्योंकि तुलसी रचना के आत्मसंघर्ष को पार कर सकने की सामर्थ्य रखते हैं, जिसे व्यक्तित्व को अतिक्रांत करना कहा गया है। तुलसी की संघर्षगाथा है, जिसका उल्लेख विद्वानों ने किया है : बारै तैं ललात-बिललात द्वार-द्वार दीन, जानत हौ चारि फल चार ही चनक कौ; मातु-पिता जग जाइ तज्यो, बिधिहूँ न लिखी कछु भाल भलाई (कवितावली उत्तर.) आदि। वैयक्तिक प्रसंग तुलसी को तोड़कर नहीं चले जाते, कवि को इनसे जीवनधार में प्रवाहित होने की नई प्रेरणा मिलती है। जिस सामन्ती समय से महाकवि गुज़र रहे थे, उसकी चर्चा अनेक प्रकार से है, जिसे एक सजग प्रतिभा का आत्मविस्तार कहा जाएगा। तुलसी ने स्वयं को पार किया और समय को भी, इस अर्थ में कि उन्होंने एक उदात्त सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि विकसित की और रचना की ऊर्जा से उसे व्यापक समाज तक पहुँचाने में सफलता पाई। यह निश्चय ही चुनौती-भरा कठिन रचना-कर्म है और तुलसी ने इसे संभव किया। मूल्य-स्तर पर वे अपने समय के सामंती परिवेश से टकराते हैं, और विकल्प
का संकेत भी करते हैं, जिसके लिए कलिकाल और रामराज्य शब्दों का प्रयोग उन्होंने किया है। एक है मध्यकाल का भयावह यथार्थ और दूसरा है कवि का वैकल्पिक स्वप्न-लोक।
कविता के आशय को तुलसी ने आरंभ में ही स्पष्ट कर दिया है ताकि कोई भ्रांति न रहे कि वे बस कथा कहने का उपक्रम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि उनकी सात्त्विक आकांक्षा है कि साधु-समाज में उनकी कविता को स्वीकृति मिले और बुद्धिमानों का आदर : साधु समाज भनिति सनमानू और जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं, सो श्रम बादि बालकवि करहीं। उनके लिए कीर्ति, कविता और संपत्ति तीनों तभी सार्थक हैं जब गंगा के समान सबके हित में नियोजित हों : कीरति, भनिति, भूति भल सोई, सुरसरि सम सब कहँ हित होई । इस प्रकार तुलसी कविता के महत् सांस्कृतिक गंतव्य को विवेचित करते हैं और तब आगे बढ़ते हैं। पर वे यह भी जानते हैं कि
170 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन