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सरवर रूप विमोहा, हिये हिलोरहि लेइ
पाँव छुवै मकु पावौं, एहि मिस लहरहि देइ। समापन करते हुए जायसी कहते हैं : मानसर स्वयं को भाग्यशाली मानता है कि 'पारस रूप' यहाँ तक आया है और उसका रूपांतरण हो जाता है। इसके मूल में कवि का यह आशय अभिप्रेत है कि सच्चा सौंदर्य उद्दीपन नहीं, आलंबन है, वहाँ हम नतशिर होते हैं : पूरा प्रसंग प्रभावी है और जिसे बिंब प्रतिबिंब भाव कहा जाता है, वह व्यक्तित्व का नया रूपांतरण है :
कहा मानसर चाह सो पाई। पारस रूप इहाँ लगि आई भा निरमल तिन्ह पायन्ह परसे। पावा रूप रूप के दरसे मलय समीर बास तन आई। भा सीतल गै तपनि बुझाई न जनौं कौन पौन लेइ आवा। पुन्य-दसा भै पाप गँवावा ततखन हार बेगि उतराना। पावा सखिन्ह चंद बिहँसाना । बिगसा कुमुद देखि ससि-रेखा। भै तहँ ओप जहाँ जोइ देखा पावा रूप रूप जस चहा। ससि-मुख जनु दरपन होइ रहा
नयन जो देखा कँवल भा, निरमल नीर सरीर
हँसत जो देखा हंस भा, दसन-जोति नग हीर। पद्मावती का व्यक्तित्व कुछ स्थलों पर खुलता है, जैसे वह रत्नसेन के तप को सराहती है और उसमें प्रेमी पति के प्रति गहरा राग-भाव है। कथा में एक मोड़ तब आता है जब राघव चेतन में वासना जागती है और वह प्रतिकार-भाव से अलाउद्दीन का दुरुपयोग करता है, पर वह भी 'पदमिनि-मानसर' कहकर उसके रूप को सराहता है (पद्मावती रूप-चर्चा खंड)। अलाउद्दीन दर्पण में पद्मावती का प्रतिबिंब देखता है : होतहि दरस परस भा लोना, धरती सरग भएउ सब सोना (चित्तौरगढ़ वर्णन खंड)। रत्नसेन के बंदी बना लिए जाने पर पद्मावती विलाप करती है, जिसमें नागमती भी सम्मिलित है। विषयी देवपाल के लिए पद्मावती की तीखी टिप्पणी है : रावन पाप जो जिउ धरा, दुवौ जगत मुँह कार, राम सत्त जो मन धरा, ताहि छरै को पार । बादशाह की दूती से भी वह कहती है : सून जगत सब लागे, ओहि बिनु किछु नहिं
आहि । गोरा-बादल से प्रिय की मुक्ति में सहायक होने का निवेदन करते हुए वह कहती है : महूँ पंथ तेहि गवनब कंत गए जेहि बाट । रत्नसेन को पाकर प्रसन्न है : 'जीव काढ़ि नेवछावरि धरऊँ।' समापन अंश के सती खंड में वह प्रिय को संबोधित करती है। इस प्रकार जायसी पद्मावती के व्यक्तित्व को दीप्ति देते हैं, बार-बार उसे 'पारसमणि' कहते हैं, जिसके संपर्क से रूपांतरण होता है। वह वियोग की स्थितियों से भी गुजरती है, मानों अशोक वन-बंदिनी सीता हो : पद्मावति कहँ दुख तस बीता, जस अशोक-बीरौ तर सीता (लक्ष्मी-समुद्र खंड)। जायसी ने पद्मावती को अपनी रागात्मकता से निर्मित किया है और वह कवि की अद्वितीय सृष्टि है, लोक से लोकोत्तर
मलिक मुहम्मद जायसी : पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु / 123