Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 160
________________ देखत रहे लजाई (40); धन-मद, कुल-मद, तरुनी के मद, भव-मद हरि बिसरायौ (58)। । माया से मध्यकालीन सामंती विलास का संकेत भी है : माया-लोभ-मोह हैं चांड़े काल नदी की धार (84)। जिस पतन का उल्लेख कई बार आया है, उसमें भी समय की वेदना सम्मिलित है : अबकी बार मनुष्य-देह धरि, कियौ न कछू उपाइ (155)। आग्रह ज्ञान-विवेक-समन्वित रागानुगा भक्ति पर है (176)। सूर एक वैकल्पिक संसार की कल्पना करते हुए भक्ति-दर्शन का प्रतिपादन करते है (337) : चकई री चलि चरन-सरोबर, जहाँ न प्रेम-बियोग जहँ भ्रम-निसा होति नहिं कबहूँ, सोइ सायर सुख जोग जहाँ सनक-सिव हँस, मीन मुनि, नख रवि-प्रभा प्रकास प्रफुलित कमल, निमिष नहीं ससि-डर, गुंजत निगम सुबास जिहिं सर सुभग मुक्ति-मुक्ताफल, सुकृत-अमृत-रस पीजै सो सर छाँड़ि कुबुद्धि विहंगम, इहाँ कहा रहि कीजै लछमी-सहित होति नित क्रीड़ा, सोभित सूरजदास अब न सुहात विषय-रस-छीलर, वा समुद्र की आस। इसी क्रम में वे राम का स्मरण भी करते हैं : सुवा चलि ता बन को रस पीजै, जा बन राम-नाम अम्रित रस, सवन पात्र भरि लीजै (340)। सूर कल्पनाजीवी यथार्थ-विरहित कवि नहीं हैं, यद्यपि रागात्मकता का भाव उनमें प्रगाढ़ है। सूरसागर में यथार्थ के संकेत बताते हैं कि वे अपने समय से बेख़बर नहीं हैं, पर उनकी राग-वृत्ति में उसका आंशिक प्रवेश ही हो पाता है और वे लोकजीवन की रागात्मकता में अधिक रमते हैं, जायसी की तरह । गोपियाँ जब उद्धव के प्रति आक्रामक वाक्यों का प्रयोग करती हैं, तो वे कई बार ठेठ ग्राम-बाला रूप में आती हैं : सहायक, सखा राजपदवी मिलि, दिन दस कछुक कमावते; आपुन को उपचार करौ कछु तब औरनि को सिख देहु; कत तट पर गोता मारत हो, निरे भुंड के खेत आदि। वार्तालाप शैली में जीवन-यथार्थ का जो मुहावरा सूर ने प्रयुक्त किया है, उस पर ध्यान देना होगा। प्रतीक-बिंब संसार भी लोकजीवन से लिया गया है, जिससे सूर की कविता विस्तार पाती है, सामान्यजन की स्मृति का अंश बनती है। 'प्रभुजू यों कीन्हीं हम खेती' एक बहुउद्धृत पद है, जिसमें कृषि शब्दावली प्रयुक्त हुई है (185)। विद्वानों ने राजनीति के कुछ टुकड़े भी तलाशे हैं और जीवन दैन्य के दृश्य भी, पर मेरा विनम्र निवेदन यह कि सूर ने अपनी चेतना की बनावट के अनुरूप विषय का निर्वाह किया है। उन्हें समग्रता में देखना-समझना अधिक उपादेय होगा और रूमानी दृष्टि से भक्त कवि के रूप में देखना, भागवत अथवा वल्लभ-दर्शन के भाष्य रूप में समझना एक ऐसे कवि के साथ न्याय नहीं होगा जो अपनी रागात्मकता में लोकजीवन को समेटता हुआ, उच्चतर मूल्य-आशय का निष्पादन करता है, जिसे भक्ति कहा गया। सूरदास के समाजदर्शन और भक्तिदर्शन को संयोजित रूप में देखना अधिक सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 165

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