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उचित होगा। सूर में यथार्थ के विवरण-वृत्तांत नहीं हैं, उनका ध्यान ब्रज के राग-रंगी लोकजीवन पर केंद्रित है और कृष्ण-राधा, गोपिकाएँ, ग्वाल-बाल इस वृत्त को पूरा करते हैं। पर सूर ने सामंती देहवादी, राजसी व्यवस्था को तिरस्कृत करते हुए एक वैकल्पिक काव्य-स्वप्न की परिकल्पना की, जो उनके समाजदर्शन का प्रदेय है और जो उच्चतम धरातल का भक्तिदर्शन है। वल्लभ संप्रदाय में दीक्षित होकर उन्होंने रागानुरागी भक्ति का वरण किया, पर शास्त्र की सीमाएँ पार करते हुए उसे काव्यसंवेदन का रूप दिया और चरित्रों के माध्यम से प्रमाणित किया। सूर में भागवत की प्रेरणा को भी स्वीकारना होगा, पर उन्होंने राधा की प्रेममयी प्रतिमा गढ़ी जो हर दृष्टि से अप्रतिम है : रूप, आकर्षण, निर्मल मन, समर्पण और त्याग। वह कृष्ण की नित्य प्रिया है, चिरंतन प्रिया, जिसे कृष्ण की आह्लादिनी शक्ति कहा गया। वियोग में उसका व्यक्तित्व अपनी पूर्ण दीप्ति पर पहुँचता है। ऊधौ कहते हैं : उमॅगि चले दोउ नैन बिसाल, सुनि-सुनि यह संदेस स्याम-घन, सुमिरि तुम्हारे गुन गोपाल (4730)। राधा प्रेम का सर्वोपरि प्रतिमान है, मध्यकालीन देहवाद का निषेध करती। इसलिए राधा-कृष्ण एक साथ स्वीकृत हुए-राधावल्लभ संप्रदाय बना। राधा-गोपिकाओं की परिकल्पना सूर ने उदात्त प्रेम रूप में की और यशोदा को वात्सल्य मूर्ति बनाया। ये सब उनके अभीप्सित विकल्प हैं और परंपरा से ग्रहण करते हुए, उन्होंने इन्हें नया स्वरूप दिया। कृष्ण रसिकेश्वर हैं, पर अपनी लीलाओं में वे रक्षण की सामर्थ्य का प्रमाण देते हैं। उल्लेखनीय यह कि प्रेम एकपक्षीय नहीं है, कृष्ण प्रतिदान करते हैं, जिससे सूर की कृष्ण-कथा का पूरा वृत्त सार्थकता प्राप्त करता है। गोपिकाओं का निवेदन है : नाथ अनाथन की सुधि लीजै (3808), फिर ब्रज आइयै गोपाल, नंद-नृपति कुमार कहिहैं, अब न कहिहैं ग्वाल (3845)। कृष्ण के सहज प्रतिदान-भाव से भक्ति का पूर्ण परिपाक होता है, एक समग्र रस-दर्शन की निष्पत्ति होती है : जो जन ऊधौ मोहिं न बिसारत, तिहिं न बिसारौं एक घरी (4777)। सूर ने गोकुल, वृंदावन को 'बैकुण्ठ' की संज्ञा दी है, भक्त कवि का आदर्श-लोक। गोवर्धन पूजन से प्रमाणित है कि बैकुण्ठ यहीं है जहाँ कृष्ण मानुष रूप में विहार करते हैं, और समस्त ब्रजमंडल उनके नायकत्व में अभय है, सुरक्षित है। जिस सहजता और अकुंठित भाव से सूर अपने काव्य-मंतव्य को, उदात्त प्रेम-भाव के माध्यम से प्रतिपादित करने में सक्षम होते हैं, उसे व्यापक स्वीकृति मिली और वे लोक-कंठ में प्रवेश पा गए।
166 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन