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गो-चारण प्रसंग में भी सब सम्मिलित हैं और लोकजीवन का जो दृश्य उभरता है, वह सामूहिक है, वैयक्तिक सीमाओं को नकारता हुआ ।
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सूर मूलतः रागात्मकता के कवि हैं और उनके समाजदर्शन का मूल स्वर यही है कि प्रेम अपने उच्चतम धरातल पर पहुँचकर भक्ति का रूप ग्रहण करता है राधा-गोपिकाएँ जिस प्रेम में मग्न हैं, उसे वे जीवन - सत्य की भाँति सँजोती हैं और इसलिए उसे एकांगी कहना सूर के भक्तिदर्शन की अनदेखी करना है । वस्तु-वर्णन की सीमाएँ हैं, यह हम स्वीकारते हैं, पर समय-समाज पूर्णतया अनुपस्थित हो जाए, यह संभव नहीं । सूर ने अपनी लोकदृष्टि की संपन्नता के लिए भाषा और मुहावरे को लोकजीवन से प्राप्त किया है, जिससे उनके काव्य को कलात्मक समृद्धि मिली है । यह स्वतंत्र चर्चा का विषय है, पर सूरसागर की शब्दावली बताती है कि लोकभाषा को काव्यभाषा के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है । कहने की भंगिमा, जिसका निर्वाह करने में सूर ने लोकप्रचलित मुहावरों का उपयोग किया है, विशेष रूप से विचारणीय है । गोपिकाएँ भ्रमरगीत प्रसंग में इसका मार्मिक उपयोग करती हैं : जिय उपजत सोइ कहत न लाजत सूधे बोल न बोलत; आलापहु, गावहु कै नाचहु दाँव परे लै मारि; सुन सठ रीति, सुरभि पयदायक, क्यों न लेत हल फारे; ताको कहा परेखो कीजै, जानत छाछ न दूधौ, बूचिहि खुभी आँधरी काजर, नकदी पहिरै बैस आदि । सूर में लोकजीवन की व्याप्ति उनके भाषा - संसार में भी देखी जानी चाहिए । कुछ स्थलों पर तो प्रचलित लोकगीतों को ही रचना में अंतर्भुक्त कर दिया गया है, जैसे कृष्ण-जन्म के प्रसंग में, अथवा लोरी गाती यशोदा के वात्सल्य में; जसुदा मदन गुपाल सोवावै; जसोदा हरि पालनैं झुलावै आदि । कृष्ण के मथुरा चले जाने पर यशोदा अपने वात्सल्य में मार्मिक व्यथा व्यक्त करती हैं : मथुरा क्यों न रहे जदुनंदन, जो पै कान्ह देवकी जाए (4702 ) । सूर में यशोदा वात्सल्य की अप्रतिम मूर्ति है ।
लोकसाहित्य के प्रति सही दृष्टि से, रचना में लोक-जीवन को विश्वसनीयता मिलती है और भक्त कवियों ने इसका उपयोग अपने ढंग से किया है। सूरदास की रागात्मक दृष्टि लोकउपादानों के राग-रंग भरे प्रसंगों में अधिक रमती है, पर वहाँ जीवन यथार्थ भी है, इसी माध्यम से । यदि सूर की काव्य-भाषा और उसमें प्रयुक्त मुहावरे पर विचार करें तो ज्ञात होगा कि उसमें जीवन - यथार्थ के संकेत भी हैं, आंशिक अथवा परोक्ष ही सही। गो-पालन, गो-चारण प्रसंग में इसकी चर्चा हुई है । पर एक प्रासंगिक प्रश्न यह कि सूर के विनय - प्रार्थना - भाव को क्या केवल वैयक्तिक निवेदन के रूप में ही स्वीकारना अलम् होगा ? कुछ स्थलों पर सामंती समाज की विषमता के दृश्यों के संकेत मिलते हैं और कृष्ण उदात्त विकल्प बनते हैं । वासुदेव भक्त-वत्सल हैं: बिनु बदले उपकार करत हैं, स्वारथ बिना मिताई ( पद 3), जाति, गोत, कुल, नाम गनत नहि, रंक होइ कै रानौ ( 11 ), राज - मान - मद टारत ( 12 ) । कृष्ण को वे 'बिसंभर साहब' कहकर संबोधित करते हैं, कहते हैं : महाराज, रिषिराज, राजमुनि
164 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन