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दृष्टि से दृश्य-सापेक्ष हैं, निरपेक्ष प्रकृति-वर्णन कम । गो-दोहन, गो-चारण, वृंदावन-विहार, माखनलीला, गोवर्धन-प्रसंग से लेकर रासलीला तक के दृश्यों में कृष्ण की केंद्रीय उपस्थिति है। पर प्रायः वे अकेले नहीं हैं, उनके साथ ग्वाल-बाल हैं अथवा गोपिकाएँ। इससे उनके व्यक्तित्व को सामाजिक दीप्ति मिलती है, जिसमें माँ यशोदा तक सम्मिलित हैं, वात्सल्य की प्रतिनिधि बनकर। जिस प्रकार के गतिमान चित्र सूर ने बनाए हैं, वे वर्णन की औपचारिक सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं और ग्वाल-जीवन को उजागर करते हैं : चले सब गाइ चरावन ग्वाल, हेरी टेर सुनत लरकनि के, दौरि गए नंदलाल (1031), चरावत बंदाबन हरि धेनु, ग्वाल-सखा, सब संग लगाए, खेलत हैं, करि चैनु (1066)। बीच-बीच में कृष्ण के रूठने के भी प्रसंग हैं : मैया हौं न चरैहौं गाइ, सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं मेरे पाइ पिराइं (1128)। यशोदा का वात्सल्य-भरा तर्क है : तुम कत गाइ चरावन जात, पिता तुम्हारौ नंद महर सौ अरु जसुमति सी जाकी मात, खेलत रहौ आपने घर मैं, माखन दधि भावै सौ खात (1127)। पर फिर कृष्ण का व्यक्तित्व लोक में प्रसरित कैसे होगा ? ब्रज की खुली भूमि में कृष्ण लीलाएँ उन्हें लोक से संबद्ध करती हैं, उनके चरित्र को व्यापकत्व मिलता है। रास जो कि शृंगार का चरम क्षण है, वह यमुना के कूल-कछार में रचाया जाता है : जमुना-नीर-प्रवाह थकित भयौ, पवन रह्यौ मुरझाई (1608)। सूर ने इसे 'जमुना का सुभग पुलिन' कहा है (1656)। यमुना कृष्ण-लीला का साक्ष्य है, जहाँ श्रृंगार के साथ वीरता भी है, जैसे कालीदह-प्रसंग में।
जनपदीय संस्कृति की अपनी विशेषताएँ होती हैं, जिसके निर्माण में भौगोलिक स्थितियों की भूमिका होती है। ब्रज का इतिहास लिखते हुए श्री कृष्णदत्त वाजपेयी ने ब्रज के लोकजीवन का विशेष उल्लेख किया है, जो वहाँ के लोकसाहित्य की पृष्ठभूमि में है और जिसने कृष्णकाव्य को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। इसमें ग्वाल-जीवन तथा उससे संबद्ध उत्सवों की विशेष भूमिका है और संगीत, नृत्य, चित्र, मूर्ति, साहित्य पर इसका व्यापक प्रभाव रहा है। सूरदास ने इस लोकप्रचलित सामग्री का भरपूर उपयोग किया है : जन्म, नामकरण, अन्नप्राशन से लेकर विवाह तक के संस्कार। कृष्ण जन्म का समय है : जसुदा नार न छेदन दैहौं, मनिमय जटित हार ग्रीवा कौ, वहै आजु हौं लैंहौं (633)। झूलन, बसंत आदि के दृश्य यहाँ आए हैं जिनके माध्यम से सूर ब्रज की संस्कृति का प्रकाशन करना चाहते हैं। पर यह आभिजात्य से भिन्न भूमि पर स्थिति लोक-संस्कृति है। रास, चीर-हरण, पनघट, दान, जल आदि की क्रीड़ाएँ इसी लोकदृष्टि से उपजी हैं। इस अकुंठित स्वच्छंदता को लेकर टिप्पणियाँ की जा सकती हैं, पर जो लोकजीवन में व्याप्त है, उसे सूर जैसा गीतमष्टा बरा भी कैसे सकता है ? लोक में जो व्यक्त है, उसके ग्रहण के मूल में रचनाकार की अपनी जीवन-दृष्टि सर्वाधिक सक्रिय होती है, जिसे वह सर्जनात्मक कल्पना की क्षमता से नया विन्यास देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि लोक परंपरा में जो कुछ प्रचलित
162 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन