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चेतना के बहुत समीप नहीं है। सूर का मन सर्वाधिक रमता है, कृष्ण की बाल लीलाओं में, जिसमें यशोदा, ग्वाल-बाल, गोपी, माखन-चोरी आदि के प्रसंग हैं। गोचारण को मध्यकाल की कृषि-चरागाही संस्कृति के संदर्भ में रखकर देखने पर सूर की रागात्मक लोक-दृष्टि का परिचय मिलता है। कृष्ण-गोपी-राधा के घनिष्ठ मिलन-प्रसंग रासलीला
और महारास के अंतर्गत आते हैं, जहाँ सूर लोक-संबंधों की तन्मयता के द्वारा ही उदात्त का बोध कराते हैं, किसी आध्यात्मिक आरोपण की अनिवार्यता उन्हें नहीं प्रतीत होती। भ्रमरगीत इसी प्रेम का परिपाक है, जहाँ गोपियों का प्रेम परीक्षित होता है। गोपिकाएँ कहती हैं : ऊधो भली करी तुम आए, बिधि कुलाल कीन्हें कांचे घट, ते तुम्ह आनि पकाए। कृष्ण में बहुरंगी व्यक्तित्व है, अनेक छवियों से संपन्न-सोलह कला अवतार; उनमें रूप के साथ गुण भी हैं कि वे वंशीवादक हैं, तथा उस जनसमाज के रक्षक हैं, जो उन्हें प्रेम करता है। सामाजिक सामर्थ्य से सौंदर्य प्रामाणित होता है, जिसे कर्म का सौंदर्य कहा जाता है। सूर ने कृष्ण का पूर्ण मानुषीकरण किया और सूरसागर की विभिन्न लीलाओं में इसे प्रामाणिकता दी।
विनय भक्ति का अविभाज्य अंश है और सूरसागर का आरंभ विनय पदों से होता है : चरण-कमल बंदौं हरि राइ। अगले पद में सूर का तर्क विचारणीय है कि सगुण क्यों ? इसलिए कि निर्गुण अव्यक्त है, उसके रूप का ग्रहण सरल नहीं-उसका आस्वाद तो लिया जा सकता है, 'गूंगे के लिए मीठे फल के रस' की तरह, पर व्यक्त कर पाना कठिन। तर्क है : रूप-रेख-गुन-जाति-जुगति बिनु, निरालंब कित धावै, सब बिधि अगम बिचारहिं तातें सूर सगुन-पद गावै। सूर के प्रार्थना-भाव में जाति-वर्गहीन भक्ति का स्वरूप है : जाति, गोत, कुल, नाम, गनत नहिं, रंक होइ कै रानौं (पद 11), जिसे कवि के उदार भक्ति-प्रस्थान के रूप में देखना होगा। ग्वाल-बाल गोपी कृष्ण के जीवन में सुख लेते हैं, यही उनका प्राप्य है और कृष्ण भक्तों को जातिविहीन संज्ञा के रूप में देखते हैं। सूर ने इस जातिहीनता को कई प्रसंगों में दुहराया है, जिस ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए : जाति-पांति-कुल-कानि न मानत, वेद-पुराननि साखै (पद 15)। स्याम गरीबम हूँ के गाहक, नाथ अनाथनि ही के संगी, हमारे निर्धन के धन राम आदि पदों में कवि के प्रार्थना-भाव का मूल स्वर यही है कि भक्ति जाति-वर्गविहीन राग-व्यवस्था है और ईश्वर समदर्शी हैं। प्रार्थना-पदों के माध्यम से सूर का जो समर्पण भाव व्यक्त होता है, उसकी ध्वनि यही प्रतीत होती है कि जीवन की सार्थकता हरि-भजन में है : जा दिन मन पंछी उड़ि जैहै (86), नहिं अस जनम बारंबार (88), कीजै प्रभु अपने विरद की लाज (108) आदि। कहीं-कहीं सूर-तुलसी में ऐसा भाव-साम्य मिलता है कि आश्चर्य होता है, जैसे : प्रभु मेरे गुन-अवगुन न विचारो (111), प्रभु हों सब पतितन कौ टीकौ (138) आदि में। आसक्ति के संसार से मुक्ति की कामना और भक्ति में संलग्नता इस प्रार्थना-भाव के मुख्य स्वर हैं। यदि वार्ता-साहित्य के आधार पर स्वीकार कर लिया जाय कि वल्लभाचार्य की प्रेरणा
सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 137